अभिव्यक्तियाँ भी प्राणमय होती है , तृषित

अभिव्यक्तियां भी प्राणमय होती है , उनमें अनुभूतियाँ बिखरती है , और अनुभवमय अपनी बोलती अभिव्यक्ति से अपनी अनुभूति को सत्य जानता है ।
ईश्वर के विलास से विस्तार होता यह विस्तार अभिव्यक्ति है , उनकी रचना है । जब यह चित्र सजीव भाव देते तब अपनी ही रचना प्रेम का उपहार होने से कभी स्व से अधिक रचनाकार को प्रिय हो जाती है । यह रचनाकार का अहम नहीं , रचनाकार ने स्वयं को व्यक्त करने के प्रयास किये पर वह अव्यक्त ही रह जाता , फिर रचना में उसका वही तत्व उतरता जो उसकी रूह में छिपा , अतः कभी कभी रचनाकार स्वयं की रचना संग पूर्ण होते है क्योंकि यही वह भाव था जो व्यक्त नही हो सकता था , जिसे बहुत खोजा था यह उस अनुभूति की छाया है - उस अव्यक्त आह्लाद का उन्माद जो व्यक्त हो गया ... वह है अभिव्यक्ति । किसी सच्चे रचनाकार को पूछा जाये आप और आपकी रचना में किसी एक चुनाव में हम किसे चुने तब कोई भी रचनाकार अपनी रचना को ही आगे कर कहेगा , न भी कहे तो भीतर चाहेगा । रचना केवल आकृति या शब्द समूह है , कल्पना परन्तु उसमें कुछ ऐसा अव्यक्त निहित रस बह गया जिसके लिये सजीव स्वयं निर्जीव और निर्जीव में सजीव अनुभूत हो उठता है , और इस भावना से वह रचना फिर निर्जीव नहीं एक प्राणमय होती है । कोई रचनाकार अपनी रचना को निर्जीव नहीं कहेगा , जबकि तत्वतः वह सजीव है नहीं उसमें जो सजीव है वह रचनाकार का अव्यक्त रस जो स्वतः रसमय रचनाकाल में बह गया ।

ईश्वर संग भी ऐसा ही है , वह रसमय अतः रचनाकार स्व रस आलोढन में . ... ! उसे स्वयं में जो खींचता वह उनकी आह्लादिनी शक्ति यानी अनुभूति उसी आह्लादिनी के रस को जीने में जो कुछ प्रकाश और रस बिखरा - महका वही ईश्वर की रचना । उनका व्यक्त प्रेम , अपने ही अव्यक्त प्रेम रस आलोढ़न में , चूँकि जैसे ईश्वर आह्लादिनी को व्यक्त नही कर सकते जीव भी अनुभूति को ख कर भी कभी नही कह सकता , बल्कि वह गहरा जाती है । यही रस वितरण प्रणाली होती है परस्पर परिपूरक भावना से ... ... सत्यजीत तृषित ।।।

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