भेदन को भेद सब रसन को जानत , तृषित

भेदन को भेद सब रसन को जानत
ऐसो रस जाने वृंद कुञ्ज को पात-पात

धरत कर लाल जबहि धीरज खोवत ललित लाडिली कपोलन पे
होवत का-का नव रस संचार जानत ऐसो भेद झाँकत ज्यों चन्द्रिका झरोखन ते

वास धरे उह लोक ज्यों भावन संग
रज रेणु नित् का गीत गावत
ऐसो का जो नित् ही वेणु संग गुंजत
जानत सब भेद निकुँजन के
सुनत छिन छिन का शब्द श्यामसुन्दर रंध्रण से
पिय निहरत उठत ज्यों भाव भाविनि  प्रिया माधुरी अधरन पे
भाव डूबत रस को जानत , जानत ज्यों स्यामास्याम स्पंदन-कम्पन
घटत-बढ़त अन्तः युगल चित राग जानत ,
डूबत जो मिलित द्वय हिय अरविन्द रस सिंन्धु संगम पे
ऐसो रस जो मधु घुलित कल्लोलिनी को सार जानत
तब जानत न बखानत अन्य कछु छुटत सार शेषत
सब जानत जो रस न जानत , रसमाधुरी जानत सब न बखानत
-- सत्यजीत तृषित

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