गुण का विकास निर्गुण , तृषित

पुष्प की सौन्दर्यता उसकी सुगन्ध से सिद्ध होती है , सुंदरता हो और सुगन्ध नही तो पहचान नही रहती । इसी तरह व्यक्ति की पहचान उसके गुणों से होती है ।
यहाँ तक सब जानते है , अर्थात् गुणों में आसक्ति संसारिक विकास का हेतु है । व्यक्ति गुणी हो तब संसार में सिद्ध होता है , जिसने गुण धारण किये हो वह जाना जाता है अपने गुणों से ...
और जो इन गुणों को शरणागत कर दें , समर्पित कर दे , वह निरावरण हो जाता है , उसका कुछ नहीं रहता , गुण भी नहीं ।
गुण विकसित होकर निर्गुण होते है और जड़ता से बन्ध कर दोष हो जाते है , जैसे विनम्रता गुण है और मैं कहूँ मैं बहुत विनम्र हूँ यह जड़ता हुई और इससे गुण नहीं दोष ही प्रकट होगा ।
विनम्रता होने पर बोध न रहे कि क्या मैं विनम्र हूँ , नही मैं विनम्र कहाँ , विनम्र तो भगवान है और इस तरह निर्गुणता का विकास होगा ।
सभी गुण ईश्वर में है अतः उनके है जीव किसी गुण के शीर्ष पर नहीं जा सकता , सभी गुणों के शीर्ष पर स्वयं में निहित सभी गुण की पूर्णता होने पर भी अभाव ही दीखता है ।
अतः पुष्प की सार्थकता सुगन्ध से है , वह कहे यह सुगन्ध मेरी है तो यह जड़ता हुई और यह कहे कि यह तो भगवत्प्रसाद है , भगवान की करुणा से है , मेरी नहीं , मैं नन्हा सा पुष्प कहाँ से सुगन्ध लाऊँगा यह मैंने एकत्र नहीं की यह सुगन्ध मुझे मिली है विधाता से । इस तरह गुण विकृत होकर दोष नहीं होगा ।
तरह तरह की उपाधि और तख्तियाँ व्यक्ति की गुण में लालसा को दिखाते है , सब भला दिखना चाहते है , भला होना और भला दिखना दोनों में भेद है , भला दिखना चाहने पर संसार की सत्यता सिद्ध होगी और ईश्वर भी तब भौतिक वृद्धि के कारक होंगे । व्यक्ति स्वयं के दोषों का मन्थन करने के स्थान पर जब तक अपने गुण का प्रचारक होगा तब तक वह जिन गुणों को स्वयं में पा रहा वह उसने पाये नहीं क्योंकि वास्तविक गुण होने पर उसका होना या ना होना पता ही नही होता है । गुण का विकास निर्गुणता और निर्गुणता का फल प्रेम है । दोषों से निवृत्ति स्वतः गुण में परिणत हो जाती है , अहम रूपी दोष न पिघलने से सद्गुण विकसित नहीं होते और गुण अहम के संग दोष हो जाते है । दोष कोई चाहता नही ... चाहता गुण है पर वह गुण की सिद्धि ही दोष हो जाती है ।
--- सत्यजीत तृषित ।।

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