कुछ भाव काव्य रूप , तृषित 06-12-12016

आसां नही हूँ
एक दर्द भरी
किताब हूँ
मुझे दराजों में
रहने दो ।
दीमक को मेरे
ग़म निगलने दो
तुम पढ़ने लगे तो
आसां नही कि
... लौट सको
अपने आइने तक

[12/6, 3:35 PM] सत्यजीत तृषित: यह तो सच है ...
कि मै एक पत्थर हूं
पर यह भी सच है कि
मुझमें खोया एक जीवन है
मृत हूं , परन्तु श्मशान नहीँ पहुँचा हूँ
शायद फिर कोई करतब तुम्हारा
मेरी निगाहों में फुदक पड़े
सो बेजान खड़ा हूं

मुझमें से मेरी फ़ितरत कही बिखर गई
सो अब किसी के काम का भी नहीँ

सूखे कुँए के आख़िरी मेंढक की तरह
मुझे याद नहीँ
ज़िंदगी और मौत का कोई ख़ास फ़र्क

सुनसान गली में
अँधेरे से जूझते श्वानों का
एक नया मित्र
जिसे वह कल भौंकते थे
पर आज कोई ...
बड़ा क़ातिल उन्होंने देखा है

शायद मेरे शव पर उन्हें भी रहम हो आया हो
-- तृषित
[12/6, 3:40 PM] सत्यजीत तृषित: पत्थर का भी दिल दहक उठता है
जब नहीँ जब उसे तोडा जाएं
टुकड़े - टुकड़े किया जाएं
दिल तो मचलता है जब
उस पर कोई गुलाब
बिना मुरझाए गिर जाये

तब लगती है उसे चोट
सच में तो वो तब ही टूटता है
जब पत्थर किसी फूल को छूता है
--- तृषित
[12/6, 3:52 PM] सत्यजीत तृषित: मुझे एक झलक उसकी तलाश थी
और उसने ज़माने भर को तस्वीर बना सजा दिया
उसकी ज़िद्द थी खुद न आने की रूबरू ...
यहाँ प्यासी आँखों से कहाँ करती फिर कोई तस्वीर गुफ्तगूं --
तृषित
[12/6, 4:04 PM] सत्यजीत तृषित: कारंवा पर चलते हुए इक अरसा बीत गया
सफ़र से फिर दिल सदा अंजान ही रहा

मुझे क्यों फ़िकर हो भला इस बेहिसाब कारंवा की
ना यें कारवाँ मेरा है ना सफ़र ही मैंने यें चुना है

तुम जज्बातों के पानी पर उड़ो
या सरगोशी हवाओं में डुबो
अपनी मंज़िल पर ख़ुद , ऐ सनम
अपनी तरक़ीब से चलो
संग चलो , फिर कही ही चलो ...
- तृषित
[12/6, 4:09 PM] सत्यजीत तृषित: कारंवा पर चलते हुए इक अरसा बीत गया
सफ़र से फिर दिल सदा अंजान ही रहा

मुझे क्यों फ़िकर हो भला इस बेहिसाब कारंवा की
ना यें कारवाँ मेरा है ना सफ़र ही मैंने यें चुना है

तुम जज्बातों के पानी पर उड़ो
या सरगोशी हवाओं में डुबो
अपनी मंज़िल पर ख़ुद , ऐ सनम
अपनी तरक़ीब से चलो
संग चलो , फिर कही ही चलो ...
- तृषित
[12/6, 4:09 PM] सत्यजीत तृषित: ठहरा नहीँ हूं ...
ठिठुर गया हूं

मुझे कहाँ आदत थी
नरम इशारों को छूने की

पानी को कहाँ
आदत होती है
सर्द हवाओं की
यह सर्द हवा का स्पर्श है
जो मुझमें बर्फ़ सा जमा है

और तुम कहते हो
क्यों ठहर गया हूं ...
-- तृषित
[12/6, 6:49 PM] सत्यजीत तृषित: पुछता है जब कोई ...
कौन हूँ मैं ??
निरुत्तर सी
अधूरी मुस्कुराहट से
नयन रस छिपाती
आंदोलित रज कण ... !!
कैसे कहूँ ...
अपनी कोशिशों से
स्वरचित वेदना हूँ ... एक !!

कौन हूँ मैं
तुम्हें निरखने पर
जब दर्पण से पूछती हूँ कभी ...
प्रतिबिम्ब कहता है ...
छाया हो किसी की
प्रीत हो उनकी
-- "तृषित"

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