अहसास हो तुम , कविता , तृषित

तुमने कहा मेरे लबों पर रहो नशा बन कर ।
हमने तेरों की आहट पर अपने रब का नाम कह दिया - तृषित

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मेरे लफ्ज़ जब मेरे लबों पर
आने से पहले बिखर जाते है

मुझमे तेरी साज़िश सी लगती है

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अहसास हो तुम

किसी के प्रेम की प्रतीक सी

तुम वह पवन हो जिसने उन्हें कभी था छुआ

तुम वह रज कण हो जिस पर थे उनके क़दम गिरे

तुम से आती ख़ुशबूं है उनकी

समाई थी कभी तुम उनमें ही गहरी

तुम नहीँ देखती अब इन रास्तो को

आँखों में बसी सूरत है जो छीपी
वह तुम्हें जीने लगी है

तुम अब उनके लिये खिलती कली हो

तुम उनकी वेणु पर उठती हलचल हो

तुम उनके ख़्वाब की एक बूँद हो

तुम उनकी बाँहो से फिसलती कोई मुलायम अंग वस्त्र हो

तुम , तुम नहीँ हो
अब वह है

मैंने तुम्हें जब देखा , दीखते रहे तब वहीँ

तुम्हारे भीतर-बाहर वह है

तुम्हारे शब्दों में बहते वह है

तुम्हारी कलम से गिरते अक्षर भी वह है

तुम उनकी प्रीत हो

सो तुम उनके लिये हो
उनमें हो

खोई हुई घुंघरू हो उनके पायल की

उतरी हुई मेहँदी हो तुम उनके हाथों की

और तुम उनके प्रेम स्पर्श से बिखरा उनके लिये एक मोती हो

तुम से झरती यमुना की आवाजें

और उसमें खेलते रहते सदा वे हीं

तुम एक नांव हो , जिस पर उनके प्रेम रंग सरकते रहते

उनके चरणों की रज को धरती गोपी के सिंदूर की ख़ुशबूं हो तुम

तुम , तुम नही हो , सदा वही है ।

उनके निकेतन की पुष्प पर उड़ती तितली हो

तुम्हारे पीछे मैंने उन्हें भागते देखा

तुम उनकी हो , देखो वो खोजते है तुम्हें आज भी ...

-- "तृषित"

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