प्रियालाल नित्य एक रूप
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श्याम सुंदर को कोई भी जानता , मानता , देखता , सुनता , समझता है तो वह श्री जु की कृपा । वरन अकेले सहज दर्शन नही इनका । सिवाय श्री जु । शेष कोई भी इन्हें जब ही देख सकता है जब इनमें वह समा गई हो
श्री जी से भिन्न श्यामसुंदर बहुत सुंदर है , बहुत दिव्य , बहुत आलोकित । वही पी सकती उस स्वरूप को । और उनके प्रेम में यह श्याम हुए , क्योंकि वह इनसे भी उज्ज्वल है । वरन श्यामसुंदर हमसे इतने उज्ज्वल है कि दर्शन सम्भव ही नही । श्री जी की कृपा से यह श्याम होते और सहज दर्शनीय ।
केवल मेरे हृदय की कल्पना भाव नही यह रसिक सिद्धान्त भी है ।
श्री किशोरी से भिन्न वह कभी नही ।
राधा रम गई है इनमें सो यह राधारमण है । सच में इनमें राधा भीतर उतर चुकी है ।
प्रियालाल दिव्य देह है
हम जड़ है , प्रेम की सीमा में इस तरह परस्पर समा जाना हमें समझ नही आ सकता । क्योंकि इस जड़ सृष्टि में देह एक दूसरे में डूब नही सकती
यह दिव्य देह है । श्री प्रिया सच में इनमें उतर जाती है
और यह श्री प्रिया में उतरे रहते है
अपनी देह की पृथक आवश्यकता इनको इसलिय ही रहती है
क्योंकि श्री प्रिया इनमें उतर इन्हे जी रही और यह प्रिया में उतर उन्हें
भीतर समा जाने के बाद भी लीला होती है । भीतर उतरने के बाद भी प्रेम वेचित्य होता है क्योंकि यह तृप्ति चाहते ही नही , अतः अतृप्ति की ही सृष्टि होती है , भले कितने ही परस्पर डूब गए हो
श्यामसुंदर की छब में श्रीप्रिया का स्पष्ट दर्शन और भीतर उतरी प्रिया की रूचि अनुरूप सेवा करने वाले सच्चे रसिक होते है ।
रसिक का अर्थ ही यह है जो दोनों को एक रूप में पिने को आतुर हो ।
हमारी जड़ बुद्धि है , हम मिलन को देह तक सोच सकते है , इनके लिये देह बन्धन नही । यहाँ परस्पर भीतर उतरना सम्भव है । भीतर उतर कर भी यह छटपटाते , और हम देह स्पर्श को ही प्रेम की सीमा जानते है ।
प्रेम का आनन्द जब है , जब एक देह में दो प्राण हो , आप अपने प्राण को प्रियतम के प्राण में न्यौछावर कर दो ।
फिर प्रियतम का प्रण ही वहाँ जीवन हो । हम सब में यह है आत्मा और परमात्मा । हम आत्मा को पृथक चाहते उसके परमात्मा से , परमात्मा ही जी लें यह जगत में सम्भव ही नही । गीता का निष्कर्ष है यह । और नित्य रस में सखी और श्री जी स्वयं में प्रियवर को जी रही है ।
हमने प्रेम को भी शास्त्र की तरह रटना सीख लिया है ।
रसिक कहते है , और खुद मोहन कहते है । कि श्री धाम वृन्दावन प्रियाजी का हृदय है । इस बात को हम सिद्ध कर भी दे कि कैसे यह उनका हृदय है । कैसे यमुना प्रिया हृदय का बहता रस है । पर मान नही सकते हम । हम तो अब जड़ मानते है श्रीधाम को । श्री प्रिया का हृदय ही रस स्थिति में जड़ हुआ है । और प्रियतम ने ही स्वयं को उनके हृदय से बाहर ना निकलने की ठान ली है , सो प्रिया के वृंदावन रूपी हृदय में वह विचरण करते है । श्री प्रिया के हृदय की लालसा है प्रियतम के पद के राग को धारण करना । श्री प्रियतम के हृदय आंतरिक तृप्ति है प्रिया जी के चरण का लालित्य होना । परस्पर एक भाव है । प्रियतम चरण पर लगी श्रृंगार सामग्री स्वयं श्री प्रिया है । जैसे महावर । और उसी महावर को प्रियतम के चरण सहित हृदय में धारण करने के लिये वह वृन्दावन हो गई । साक्षात हृदय है यह । यहाँ जड़ रूप में दीखता है पर वहाँ यह उनका हृदय है । अब विचार कीजिये , इस पर चलती कुल्हाड़ी आदि , क्रेंन आदि , यह कहाँ चल रही है । प्रिया के हृदय को खोद कर भी हमें भगवत प्राप्ति चाहिये । अगर भवन निर्माण वहाँ भूमि जान करना होता तो वह तो पहले के रसिक ही कर लेते क्यों खुले में भटके , क्योंकि वह सत्य जान , श्री जी के हृदय में रमण कर रहे थे ।
फिर भी लाडली लाल दयालु है , कहने भर को हम अधम है । कभी किसी को धाम में मैं खुद कहु कि भाई तुमने प्रिया के हृदय को छलनी किया वो नही मॉनेगे । अतः धाम जाकर भी मानसिक रस सेवा कीजिये , प्राकृत निर्माण नहीँ , उससे भोगी को सहजता तो होती पर युगल को आघात लगता ही है । वहाँ युगल के हृदय को एक जान रमण कीजिये । प्रिया का हृदय श्यामसुंदर के हृदय से अभिन्न होकर भी सेवार्थ रमनार्थ श्रीधाम (किशोरीहृदय) हो गया है । -- तृषित । इसे शेयर न करें । और सन्देह है इस बात पर तो इसे भूल जाएं , ऐसा न हो कि इसकी पड़ताल करें । क्योंकि इससे भी युगल रस को आघात होता है । हम इतने सन्देह करते है कि सारी जिंदगी सवाल करते फिरते है । जबकि पता सब हमें । फिर भी हम कहलाते प्रेमी ।
क्यों वृंदावन खेंचता है , क्योंकि वो प्रिया हृदय है , वहाँ मधुरता आज भी सम्पूर्ण धरती को खेंच रही है । इसलिये पहले हमसे विलासी लोग धाम में प्रवेश नही करते थे , क्योंकि वह हृदय है श्री प्रिया का वहाँ वही उतरे जो हृदयस्थ भाव को और महका सकें । भोगी की दृष्टि रही तो वह भूमि दिखेगा , हम कितना ही सुन ले , पढ़ ले , मानेंगे नही कि यह लता पता हृदय की भाव फुलवारी है ।
श्यामसुंदर प्रकट है भाव से , भाव प्रकट है प्रिया हिय से , भाव वह सत्ता , वह भूमि है जहाँ प्रियतम दृश्य , श्री कृष्ण रूपी आनन्द दर्शनीय-सेवनीय है ! भाव रूपी भ्य सत्ता अर्थात श्री प्रिया हृदय से । श्रीवृन्दावन से । श्रीवृन्दावन वह रस की गाढ़ता है जहाँ प्रियालाल में द्वेत रहता ही नहीँ । श्रीवृंदावन प्रियालाल को रस हेतु पृथक कर भी अभिन्नता प्रदान करता है । युगल कभी पृथक न हो अगर उस पृथकता में भी अभिन्नता अनुभूत ना हो तो , फिर श्री वृन्दावन ही ऐसी सेवनीय जिज्ञासा करता है जिससे वह सखी प्रकट होती है । और रस वर्द्धन के लिये दो हुए प्रियालाल को नित नव राग से , अनुराग से , भाव से , एक करती है । प्रियालाल के मिलन रस में डूब जाने की चाहत हो , न कि दोनों के पृथक दर्शन की । भले उस डुबकी में हमें स्वयं की पृथकता अनुभूत न हो , पर युगल रस अर्थात प्रियाप्रियतम को अभिन्न पाने की हसरत है तो स्वतः ऐसी सृष्टि खड़ी हो जायेगी , भाव रूपी । जो उन्हें दो करें वह भाव रस राज्य में नहीँ आ सकता । जो उन्हें अभिन्न कर स्वयं को भी न देखे वह आता है , देखने वाला तो रस भोगी हुआ , यहाँ वह सेवा वृत्ति चाहिये जिसे प्रियालाल के रस अच्छा अपना होना भी ना लगता हो । युगल की केलि अति पावन है , वरन शिव उसका नित चिंतन ना करते , युगल केलि के लिये मन को निर्मल कीजिये , वहाँ रस है , प्रेम है , काम नहीँ है , अति पावन है युगलकेली , जैसे धरती पर संगम पावन है वैसे । परस्पर डूबे हुए प्रियालाल की झाँकी ही सम्पूर्ण लोक और भुवन का अति उत्कर्ष रस है ।
मुझे मेरी उल्फ़तों में तेरी मोहब्बतों का ख्याल ना रहा
फिर तेरी मोहब्बत की फिज़ा में और उल्फ़त का इंतज़ार ना रहा
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