मानस और क्रियात्मक सेवा , तृषित

पदपंकज मानस सेवा
नोट-मानस सेवा कभी दोहराई नहीँ जा सकती , भाव गत कुछ भिन्नता उसे नवीनता और सरसता नित्य प्रदान करती है । क्रिया समान होने पर भी भावगत नवीनता आवश्यक है । भावसम्बन्ध न हो तो क्रिया एक सी होने पर मन ऊब जाता है फिर सेवा कर्त्तव्य मात्र रह जाती है । भाव सम्बन्ध है तो नित्य समान क्रिया नव और भिन्न - भिन्न रस संचार कर लेती है । क्रियात्मक सेवा में क्रिया से भाव में मन का लग जाना ही मानस सेवा है और भाव सेवा में क्रिया लोप हो जाना ही मानस सेवा रस है । भावात्मक सम्बन्ध से जीवन ही सेवा हो जाता है , फिर अर्जुन का युद्ध करना भी सेवा ही है और हनुमान जी का लंका-विध्वंस भी ... -- "तृषित"

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