एक सूर्य प्यासा निकला था , तृषित
एक सूर्य प्यासा निकला था
कल रात कोई उसकी चाँदनी को पीने
दिन भर आग बरसा कर
रात में रस वो खेंच लाता
चाँद की कटोरी बना कर
नीली चद्दर पर सजा देता
फिर दिन में खोजता ...
ज्योत्स्ना !
चन्द्र रागिनी !
तेजत्व का ईश्वर वह
रस की पिपासा में
ना जाने क्यों करता रहेगा
अश्वमेध !!
चन्द्र में छिपी
वो शर्मीली चाँदनी
ना जाने कब रोक सकेगी
अपने रोम-रोम से
बहते अश्रुओं को
रस अश्रु की छाया से
बिखरे उपवनों में
सूर्य तलाशता है
नित पलक विहीन चक्षुप्रभा से
इन मिलन सुमन में "मैं" कहाँ हूँ
क्या कभी रजनी मुझे
स्वीकार नहीँ करेगी
क्या मुझे राम से राधा होना होगा
और फिर पौ फटते ही पुनः राम !!
कृष्ण निवृत्त बहते तिमिर को त्यागो
यात्रा करो मावस से पूर्णिमा तक
सोलह कलाओं की !!
मेरी ऊष्मा को छूकर कर ज्योत्स्ना बना लो
पर क्या कभी तुम मुझे दर्शन कराओगे
मेरे तप की मधुर शीतलता का ...
--तृषित--
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