विधान और प्रेम पथिक , तृषित
जय जय
मानव को प्रभु दण्ड नहीं देता, विधान मानव को दण्ड नहीं देता, तो फिर क्या देता है ? जिस परिस्थिति से आपका विकास होता है, वही परिस्थिति आपको देता है।
अकिंचन
जय श्री कृष्ण
🌺🙏🌺
विधान आपके हित के लिये है , और आपका अपना मन विधान के विपरीत । विधान से जो मिल रहा वह जीवन आवश्यक है , अभी हम अपने मन की कर उससे बचते जिससे वह परिस्थिति पूरी तरह बाहर निकल ही नहीँ पाती ।
हम अपने एक पक्ष को जीना चाहते , सुख को , आनन्द को , रस को , वैभव को इस कारण हम दुःख को नहीँ जी पाते जबकि दुःख के कारण ही कुछ भी थोड़ा सा मन के अनुकूल हो वो सुख देता है । शरणागत दुःखी नही हो सकता क्योंकि अपने मन की न हुई तो उनके मन की हुई और उनके मन की होने पर दुःख हुआ तो कैसा प्रेम ।
सच्चा प्रेमी अपने मन की होने पर दुःखी होता है पर वो दुःख प्रेममय दुःख है , जगत के दुःख सा नही । प्रेमी का अर्थ ही यह जिसके मन की ना हो , उनके मन की हो । हमारी वर्तमान स्थिति में उनका सुख और हमारा कल्याण दोनों है । भगवान का सुख और हमारा कल्याण दोनो एक बात है । हम अपने मन की इच्छा से अपना कल्याण नही कर सकते । उनके सुख चिंतन इतना डूब जाते प्रेमी कि कब अपना कल्याण हुआ पता नही चलता । उनको पल पल जो जीना चाहें वह खुद से धीरे धीरे छूट ने लगता है , फिर उसका बाहर का अभिनय तक खुद प्रियतम ही सम्भालते है ।
सारा संसार घूमने के बाद पता लगेगा शायद कोई उनके मन की चाहता हो , शायद ही किसी को विधान की हर विधि से सुख हो । विधान उनका मन है , विधान को जीने भर से बिन कहे एक अनन्य सम्बन्ध बन जाता है । विधान में खड़े होते ही आपकी एक व्याकुलता रहती है प्रियतम का सुख .. उनके सुख की हुई न । यह बात ही विचलित करती है , स्वयं के चिंतन का त्याग होते ही सब इच्छा गायब हो जाती है यहाँ तक की भूख-प्यास का भी मन नही होता । हाँ विधान के लिये , उनके सुख के लिये , उनके मन के लिये सदा वह प्रेमी खड़ा होता है ।
उनके मन की होवे इससे बड़ी बात क्या है ? आप उनके मन की होने दोगे तो वह आवश्यकता पूरी करेगे , व्यर्थ इच्छा नही ।
90% पथिक अपने मन की हो इसलिए भगवत पथ पर आते है , 10 % भगवान के मन की करते है और उन्हें कोई समझ नही सकता कि क्या वह प्रेमी है । न वे स्वीकार करते है ।
एक और बात दिन रात हम कहते भगवान की इच्छा ... उनकी मर्जी । करते अपने मन की नाम उनका लगाते हम । और कहते है कि हम प्रेमी है , भगवान की इच्छा ही हो जावे सच में जीवन में तो वह मिल ही गये , भगवान की इच्छा है हमें स्पर्श की , हमें थाम लेने की । ना कि यहाँ जगत विस्तार की ।
हमारे आस पास जो हो रहा वह हमारी इच्छा का परिणाम है , वह माया है , माया अपनी ही इच्छा का नाम है , हमारे भीतर इच्छा ही न हो तो विचार कीजिये फिर क्या होगा ??
क्या इतना द्वंद होगा , क्या इतने जंजाल होंगे , हम इच्छा पर इच्छा करते , पूरी न हो तो दुःखी होते ।
इच्छाओं के जाल में फँसे है हम और भगवान को पुकारते तो भी इच्छापूर्ति के लिये न कि इच्छाओं से निकालने के लिये । जीव को अभीष्ट प्राप्ति की सिद्धि देकर वह भेजे है , पर वह भगवान को साधन मानता है सामाना बटोरने का , न कि इष्ट (इष्ट इच्छा से मिली वस्तु को कहते है) इष्ट शब्द का एक अर्थ यह भी कि जिसके पास मेरी इच्छा है , और यह भी कि जो मेरी अपनी इच्छा है । जब मुझे यह अनुभूत हुआ कि इच्छा पूर्ति जीवन बन जाती तो क्यों न ऐसी इच्छा हो जिससे बड़ी कोई इच्छा न हो । राम की इच्छा करना और कोई भी इच्छा न होना दोनों एक बात है । राम की इच्छा हमारे भीतर हो तो हमें लगता हम उन्हें पुकारे परन्तु सच में यह उनकी इच्छा है कि हम उनसे जा मिले । उनकी इच्छा हो फिर स्वतः उन्हें जो कराना है करा कर खेंच लेंगे स्वयं में ! एक ही निवेदन खुद चलो या उनके मन की होने दो पर वह व्याकुल ...
सत्यजीत "तृषित" ।
Comments
Post a Comment