यह हवा में जो तेरी खुशबूं , तृषित
यह हवा में जो तेरी खुशबूं है
मुझे कहाँ उड़ा देती है
पँखो को पकड़ उड़ना
आसां नही हैं
किससे कहूँ
इन पँखों की
और मेरी पहचान नहि हैं
कुछ मुलायम अहसास सा
यूँ छूता है
उड़ती कही के लिये
और उतरती कही पर हूँ
यह नशा वजह है
रह रह कर फिर उड़ने की
फिर ज़माने के लिये
पँखो को पकड़ उड़ना
भी ज़रूरी ...
तुम जहाँ ले जाते हो
वहाँ ज़माना होता ही नही
गर उड़ूँ तेरी मौज में
बहककर
फिर कह दो उड़ने वाले
पंख यह नहीँ ...
-- तृषित
Comments
Post a Comment