विद्धं दण्डक कण्टकैः - चुभते काँटे राम को और हम - तृषित

आज प्रतिपल प्रश्न है हमारे भीतर ।
सवाल - जिज्ञासा आदि ठीक बात , पर विश्वास के जितने सूत्र हमें प्राप्त कही नहीँ ।
हमें विश्वास नहीँ ना खुद पर ना राम पर ।
जबकि राम स्वयं सभी अनन्त जिज्ञासाओं के एक मात्र समाधान स्वयं है , राम से प्रश्न नहीँ हो , राम में कोई उथल-पुथल हम ना देखें क्योंकि राम तो हमारी समस्त सीमाओं से परे का परिणाम है ।
राम प्रकट भी हुए , करुणा के कारण । निरीह - निर्विकल्प - नितांत कर्म शुन्य हो कर , आदिकर्ता है राम ... परन्तु हम मति शुन्यों के लिये प्रकट हुए ... वरन जागृत बुद्धि योग के सिद्ध सन्तों के लिये राम सर्वत्र है , उनके लिये राम से भिन्न और परे कुछ नहीँ ... व्यापक पर ब्रह्म रससार को खेंच कर स्वरूपगत होता है जो ईश्वर के सर्वत्र समान रूप से समभाव विचरण करने के विपरीत है ।
परन्तु जो जगे उन्हें इस तरह सगुण-साकार की उतनी आवश्यकता नहीँ , हम जड़- विवेक शुन्य के लिये वह प्रकट ।
वह प्रकट रूप ना लें तो सृष्टि को परब्रह्म के साक्षात्कार की उत्कंठा ही क्यों रहें । हम निहार सकें सो अपने ही स्थूल जगत में वो सिमट जाते है , वरन राम बिन तो हम आज भी देह से सम्बन्ध नहीँ रखते । हमारे जगत के कारण रूप राम ही तो है । राम हटे कि वह वस्तु कितनी ही प्रिय हो त्याज्य हो जाती है ।
ऋषि-सन्त तो व्यपाक ब्रह्म की अनुभूति में डूबे है पर विकार का त्याग न कर पाने वाले हम असुरों का कल्याण सगुण-साकार ब्रह्म ही करता है ।
जागृत चेतन सन्त तो जड़-पदार्थ में भी राम पी रहें है , परन्तु हम जड़ जीवों का उद्धार के लिये वह सगुण-साकार । हम प्रति-अणु तत्वरूप उन्हें जी नहीँ पाते तो एक सार रूप लेकर वह आते है , ऐसी मोहकता लेकर की समस्त जड़ता स्वतः उनके सौन्दर्य में विस्मृत हो जाये ।
निषादराज, केवट , शबरी , जटायु , सरलचित्त या रावण-आदि विकृत स्थिति दोनों का उद्धार सगुण साकार परब्रह्म ही कर सकते ।

बात यह नहीँ ... दूसरी करनी थी ।
राम प्रकट हुए - कंकर पत्थर पर कोमल पद रख विचरण किये , किस लिये ?
धर्म के स्वरूप को प्रकट करने के लिये , हम जो देखते है वह सब कल मिटटी होगा ... पर राम की दिव्य देह सत्य में कोमल है । कमल भी कभी सूख जायेगा , पर राम के चरण नित्य है , वह भोग देह नहीँ । दिव्य देह है वहाँ परन्तु धर्म हेतु कंकर-पत्थर को स्पर्श कर परब्रह्म की अनुभूति देने हेतु , वह जी रहे है उस पद छिलने की पीड़ा को । दिव्य रूप रहें तो कंकर-पत्थर को फिर कब स्पर्श मिलेगा परब्रह्म के पदस्पर्श का ।
सत्य में हम स्वयं कंकर है - पत्थर है हम  । क्योंकि जड़ है , सुधर नहीँ पाते , हमारे द्वारा जो गुजरा छलनी हुआ , सन्त पुष्प है उन के स्पर्श से कंकर से हम भी निहाल हुए है ।
ऐसे कंकर-पत्थर हम भले आज देह को सच माने , पर कल या परसों हमारी भस्म पर पुष्प तो खिलने से रहा । हमारी हड्डियों के स्पर्श से किसी कोई सुख नहीँ मिलेगा ... जड़ता के स्तर की कह रहा हूँ । वास्तव में हमारा चेतन खो गया है , चेतन प्रकट होने से पहले हम मिट्टी हो जाएंगे ... फिर सब मिल कर गायेंगे ... राम नाम सत्य है ... फिर अगले दिन यह महावाक्य भूल जायेंगे ।
युगों तक हम चुभे है उन्हें क्योंकि हम पुष्प पराग होते तो भी सरसता ना जुटा पाते उनके सुकोमल पद को कुछ सुख देने की ।
एक सन्त कहे ... अपने दिल में पत्थर से छलनी पद अंकित कर लो राम के ... फिर जीयो । हमारे हेतु हमारे स्वामी के पद छिल गये और हम भटक रहे अपने व्यर्थ स्वांग में ... क्षमा । अब नही लिख पा रहा ... इन्हें पढिये ... तृषित !!
स्मरतां हृदि विन्यस्य विद्धं दण्डककण्टकैः।
'स्वपादपल्लवं राम आत्मज्योतिरगात् ततः।।[2]

*(तदनन्तर अपना स्मरण करने वाले भक्तों के हृदय में अपने चरण कमल, स्थापित करके, जो दण्डकवन के काँटों से बिंध गये थे, अपने स्वप्रकाश परमज्योतिर्मय धाम में चले गये।)*

*क्यों भाई, शुकाचार्य ने दण्डकवन के काँटे जिन चरणों में बिंधे हुए हैं, ऐसे चरण-पंकज को भक्तों के हृदय में क्यों विरजवाया है? सीता भगवती की मंगलमयी शय्या पर समासीन, कौशल्यात्सगं लालित या चक्रवर्ति-नरेन्द्र के उत्संग में लालित रामचन्द्र राघवेन्द्र भगवान् के पदारविन्द भक्तों के हृदय में विरजवाते? नहीं, नहीं विद्धं दण्डक कण्टकैः, भगवान् के चरण-कमलों में काँटे चुभे हुए हैं’ पूर्वजों की मान मर्यादा के लिये, संस्कृति की रक्षा के लिये,धर्म की रक्षा के लिये; ऐसा ध्यान भक्तों को बना रहे इसलिये शुक्राचार्य ने काँटे चुभे चरण-कमल को भक्तों के हृदय में पधराया। राम नंगे पावों वन-वन विहरे, तब उनके पाँवों में काँटे चुभे। गौरक्षा के लिये धर्म की रक्षा के लिए, हमारे देवता भगवान् राम के मंगलमय पादों में काँटे चुभे। कितना सुकोमल है उनका चरण! पंकज का पराग की उसमें चुभता है। फिर कमल की कोमल पँखुड़ी चुभे यह तो बात गौण हो गयी। ऐसे चरणाविन्द में दण्डकवन के काँटे चुभे। हम भी धर्म की रक्षा के लिये, संस्कृति की रक्षा के लिये, पूर्वजों की मान-मर्यादा की रक्षा के लिये सिर को हथेली में रखकर, प्राणों को खतरे में डालकर आनन्द से जूझना सीखें, इस बात को बताने के लिये शुक्राचार्य ने कहा- ‘विद्धं दण्डक कण्टकैः’।*

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