प्रीतम का झुंझुना (खिलौना) , तृषित

*प्रीतम का झुंझुना (खिलौना)*


खिलौना कितना ही छोटा हो उसमें भोक्ता को देने के लिये रस है | मेरे प्रियतम् क्रीड़ाविलासी लीलाविलासी है सो प्रथम खिलौना *झुन्झुणा* 

जीवन एकरंग मंच है ! और हमें अभिनय करना है ! देह केवल अभिनय हेतु है ! और इस अभिनय को इस तरह करना है कि महादर्शक को हर्ष मिलें , रस मिलें !  भक्त और परम् ज्ञानी केे लिये ईश्वर का लोप होता ही नहीं ! जगत् को ईश्वरिय-प्रकाश या विभूति मान लेने जीवन लीला में ही होगा ! नित्य लीला ! प्रत्येक क्रिया को समर्पण भाव से करना हो तब करना धीरे-धीरे होना होगा और होना खेल होगा ! करने में रसानुभव नहीं है और लीला क्रीड़ावत है परन्तु व्यवहार में खेल का स्वरूप भी स्वार्थ वृति से विकृत हो गया है । खेल का सहज अनुभव नन्हें शिशु और खग-मृग-वानर आदि में मिल सकता है । करने का होना वही होगा जहाँ विलस रहा हो भगवत् सुख की सेवादारी और वह सेवादार सम्बोधित है गोस्वामी (श्रीप्रियतम इंद्रिय सुखों के सेवक) ।  पूर्ण रूपेण प्रेमास्पद श्रीप्रियतम सुख रस के भाव से प्रति क्रिया कर्म जब सहज भाव से रहे ! प्राप्त दृश्य में हिय भावित दृश्य देखते हुये  , मूल में निहित प्रेमस्वरूप को भगवतोन्मुखी करना है ! निज स्वरूप का बोध है दृश्य से हटने में ! अहम् निवृति में ! अहम् गुण-दोष से ज्ञात है ! सत- रज-तम गुण और दोष की निवृति में प्रीति उदय होगी ! दोष से हटने के लिये सत्संग और साधन भक्ति है ! आहार-विहार से त्रिगुण भीतर है ! छिपे हुये दोष की कारण सहित गुण निवृति से प्रेम प्रगट होता है प्रेम गुणातीत है ! दोष न होने पर उस गुण का अभिमान पिघलने लगता है (गुण का अभिमान ही दोष है) और अहम् रहित भाव तब होता है ! परन्तु यहाँ प्रयास न हो , प्रयास भी अहंकार से जुडा है ! पहले दृश्य को दृश्य में राग रहित करना है अर्थात् संसार में शरीर को लगाकर अपना सम्बन्ध संसार और शरीर से हटा कर प्रभु जी की और ! ... फिर विशुद्ध समर्पण ! कहने भर का नहीं पूर्ण रूपेण ! तब ईश्वरिय सत्ता से स्वत: प्राप्त सेवा और पुरुषार्थ होने लगते है ! श्रम , संयम , सदाचार आदि बिना प्रयास होते है ! कहने का अर्थ शरणागत ईश्वर का हुआ तब सभी क्रिया ईश्वरिय कृपा से स्वत: होती है ! चुंकि पूर्व में जीवन कैसा भी रहा हो परन्तु शरणागत का जीवन ईश्वर अनुरूप है ! सो नविन से अनुभुत् होते गुण से दोष की काष्ट जलती है फिर त्रिगुण का अभिमान भी गल जाता है ! जैसे पूर्व में कटु भाषी रहा तो मृदुलता ईश्वरिय कृपा से होगी फिर जब कटुता पूर्ण तिरोहित हो तब मृदुलता का भी अभिमान हो सकता है परन्तु यहाँ मृदुलता शरणागत भाव से प्रयास रहित कृपा ही है सो मृदुलता का अभिमान भी न रहेगा अपितु स्पष्ट अनुभव होगा कि यह तो कृपाप्रसादी है ! कई गुण केवल दोष के निरोध रूप में है ऐसे सत रज तम गुण से भी हटने पर परम् सहजता में प्रीति का दर्शन होगा ! त्रिगुण के विषय में गीता जी का अध्याय 14 श्लोक 5 से 18 है ! फिर इसी अध्याय में गुणातीत का स्वरूप है श्लोक 22 से 27 तक ! प्रेमी गुणातीत ही है ! 

कुल मिलाकर प्रवृति और निवृत शुन्य ! कर्तापन रहित ! स्व रहित निरन्तर भजन ! दु:ख और सुख में समान अथवा दु:ख के ताप को प्राकृतिक तप जानना और सुख से  आसक्त न होना ! स्वर्ण और रज में भेद रहित हृदय अपितु प्रेमास्पद श्रीप्रियतम प्यारे के प्रति सेवक चरण इष्ट वत सँग  ! निंदा-स्तुति में एकभाव !

त्रिगुण स्थिति आहार-विहार पर प्रभावित है ! त्रिगुण आहार-विहार गीताजी अध्याय 17 में 7 से 22 तक है ! 

देहत्व और अहम् ज्यों-ज्यों  जाता है प्रीति और रस बढती है ! भेद और दूरी न रहने पर प्रीति (ईश्वर द्वारा की कृपा से आकृष्ट अनुराग) प्रीतम से एकरूप होती है ! यहाँ नित नव मिलन और विरह  है ! मिलन-विरह लीला रस ही है ! प्रीति वर्धक ! 

प्रीतम में तिरोहित होना मिलन  ! और हट कर सामिप्य-स्वरूप दर्शन आदि विरह है ! इसे यूं लें केवल प्रीतम ही है और कुछ नहीं यें मिलन और मैं प्रीतम की हूँ यें विरह है ! 

अहम् के गलने पर प्रीति में ही प्रीतम नित्य है ! और प्रीतम में ही नित्य प्रीति ! हमें प्रीति चाकरी में किंकरी होना है ! प्रेम रस मय है ! अब सारा जीवन रसवर्धन प्रीतम के हेतु है ! ना कि निज रस की लालसा ! जीवन एक निकुँज है और समस्त आयोजन युगल रस हेतु ! यहाँ यें न विचारें की फिर हमारा रस ... हमारा रस प्रीतम के पास है ! देना ही प्रेम है ! यहाँ प्रेम है तो वहाँ महाप्रेम ! परन्तु अभिप्सा - चाह - चिंता न हो ! जहाँ लिया वहाँ प्रेम न रहेगा ! यें भी स्मृत रहे ! अत: यहाँ मिला अभिनय में ही निहित हो ! भीतर न उतरे क्योंकि सेवक से संग भलीभांति यह लोक जानता ही है कि सेवक घर आवें पकवान पकावें और चला जावें परन्तु हमारे साहिब स्वामिनी श्री रसिलीसरकार अति मधुर है प्रति किंकरी विशेष उपहारों (केलिविलास) से भरे है ! नित्य उपादान हो , आयोजन और उत्स हो... भांति-भांति के रस निवेदन का ! यें बात दु:ख की नहीं कि जितनी चाबी भरी राम ने उतना चलें खिलौना ! खिलौना होना आनन्द है ! खिलौने में रस छिपा है - उन्माद छिपा है क्यों क्योंकि वह  निज भाव में नहीं भोक्ता हेतु भोक्ता से भोक्ता के लिये है ! यहाँ रस है वहाँ आनन्द ! अगर खिलौना स्वत: भोक्ता को भुलाकर चलें तो व्यर्थ है ! मान लें बेटरी के खिलौनों को चलाकर रूम बन्द कर बाहर आ जाया जायें तो व्यर्थ है वहाँ उनका चलना ! यहाँ प्रीत और प्रीतम नित्य है और भावरसिकों के संग से हम सर्व चेतन मण्डल को सेवार्थ सौभाग्य भी सुलभ है ! बस अनुभुत् रहे सेवालोलुप्ति !

यहाँ देहगत् भगवत्-सामीप्य की माँग नही होती । नित्य ही एकत्व है । और नित्य ही अनन्त रस । यहाँ जो रस है वह वहीं से है । उनका ही है ... परन्तु उनके रस वर्धन हेतु हममें रस है । सूर्य से ही दीपक में ज्योत है दीपक रूप में सूर्य रस वर्धन पाता है । और चन्द्र में निहित सूर्य का प्रकाश भी सूर्य को भिन्न रस का स्वादन कराता है । ज्यों गौ का दुग्ध ही रसोमय-तेजोमय  जीवन भरता है । प्रेम तो प्रेमास्पद से जीवन अभिन्न  करने में समर्थ है । प्रेम उदय हो तो कोई प्रयत्न नहीं रहता । कोई अभ्यास भी नहीं पर प्रेम होने पर मैं और उसके पृथक्-अर्थ नहीं रहते जैसे जीव एक बार प्रेम श्रृंगार को छूकर प्रेम सगाई में आ जावें तो इस सगाई से छुटेगा नहीं फिर जीवन में केवल रस और लीला रहेगी । लीला और भावना क्रमिक विकास पाती हुई , प्रेम में लीलामय भीगकर श्री प्राणेश युगल को रिझाती रहेगी । श्रीप्रियतम के वरण से ही उनकी महाभाविनी रसिली मधुर सरकार श्रीकिशोरी चाकरी का पथ बिन संकल्प ही प्रकट होकर मधुरताओं के इतने गहन वन में ले जाकर हृदय को पैजणियाँ की झुन्झुण बना देगा कि आश्चर्य और चमत्कार के शेष कोई अवसर ना रहेंगें , परन्तु यह तब होगा जब भक्ति में प्राप्त भावना को द्रवित पाकर प्रियतम से प्रिया तक टपकने की मधुता के क्रमिक विकास को अनुभूत करने का भावपात्र भी लोलुप्ति में फूल रहा हो और यूँ अति माधुर्य से कर्षित मधुता से भीगा हुआ वह हृदय में प्रेम सुधा में डुबा कि नित्य नव प्रीति विलास जीवन में भीगकर निहारेगा नित्य नव आभूषण झनक से वह स्पर्शित ध्वनि झूण-झूण की गाढ मधुता । अर्थात् प्रेम हुआ तब मैं रहता नहीं भाव पथ पर वह विपिन कृपा में झरित फूल ही नहीं कुँज ही होने लगता है सो अब कहाँ हूँ मैं ...कहना बनता ही नहीं तब रसीले-रंगीले-मधुर-प्रेमी-प्यारे  (प्रेमास्पद) ने अंगीकार जो किया । अब भी बार-बार मैं खड़ा हो तो प्रेम हुआ ही नही (बाह्य लीला हेतु आभास भर पृथक अनुभव रहता फिर जैसे श्याम घन बरस जाने पर घन की आकृति ही बरस जाती है अर्थात् वह आकृति ही रसघन है ) । कृपा की बातें है जी , सम्पूर्ण बाह्य और भीतरी जीवन प्रेमास्पद को अर्पण, अहा यह गौरव  । फिर प्रेम भी तो कभी पूर्ण नहीं होता जी ...नित्य वर्धन है  वह ; नित रसिली वृद्धि । जो करना है ; उन्हीं के नाते उन्हीं के लिए सेवाभोग हेतु । अपने को रस लेने हेतु नहीं, रसभोग में रहकर भाव-रस ..लीला-श्रृंगार सेवा-लोलुप्ति के लिये श्रृंगार कैंकर्य में पाना । जीवन यहाँ से वहां उनकी रुचि रह जावे सो  सदा स्वीकार्यता से अथवा वें जैसा निरूपण करें बिना फेर बदल ...सब अति भा रहा हो ..लुभा रहा हो । स्व चेष्टा होती ही नहीं , यहाँ पृथक् स्व के पृथक् रस हेतु । जो है उनके लिए ..अर्पित होती इस झुन्झुणा की प्रति झुन् झुन्  । क्योंकि सब समर्पित हो चूका । सब कुछ उनका हुआ और वे नित्य हमारे हुए । जब उनकी सेवा ही हो चुके तो हर परिस्थिति भेद रहित निहारनी होगी भी । परिस्थियों का सदुपयोग कर उन्हें उनकी पूजा में होना है। सभी उपादान-कर्म-भाव में प्रीतम का रस हो । नित्य भांति रस । प्रेमी से वहीं होता है जो प्रेमास्पद चाहे क्योंकि अपनी चाह ; अपना मन ही नहीं । प्रेमास्पद का मन ही प्रेमी का मन है । अतः ऐसे सन्तों के कर्म भगवत् भाव ही है ...लीला प्यारे की । इसे ही बेख़ुदी कहा जाता है । बेमन या बेख़ुदी में नितांत अवर्णित आनन्द रस है । अतः प्रेमी में अपना मन न हो बेमन रहना दिव्य अनुभूति है । अर्थात् मन नित्य प्रीतम पास ही रह जावें । निज चाह नही , कोई चिंता , प्रयास न हो । पूर्ण अभयता । जैसे पत्ता वायु के बहाव में जहाँ वायु चाहे वहाँ उड़े । उसी प्रकार प्रेमी भी जड़ता से मुक्त है । अब पत्ता जितना वायु पर निर्भर होगा उतना ही उसकी उडान और आनन्द होगी । पत्ता अपने प्राण या सामर्थ्य को लगाकर नहीं उड़ सकते ...बस , ब्यार के बस । और दूसरा भाव जैसे एक दीपक की बाती दो छोर से आलोकित हो ऐसा है प्रेम । एक पात्र में दो की प्रतीति । दोनों का रस आनन्द एक जैसे पात्र में वही तेल दोनों और के रस में बह रहा हो । प्रेम में दृश्य दो देह है शेष प्राण मन बुद्धि आदि एक यहाँ तक कि जीवन और जीवन का रस (लीला) भी एक । यह दो स्वरूप-स्वभाव भी केवल परस्पर सुखविलास वर्द्धन के लिए । दोनों छोर से आलोकित बाती का दीपक अधिक आलोक कर पाता है । और यहाँ रस नित्य और अनन्त तथा वर्धनशील है । 

अतः प्रेमी प्रेमास्पद की सत्ता से दिव्य गतिशील और भीतर से आत्म-निष्क्रिय है ।

जैसे सिद्ध रसिक सन्त आदि समस्त पद रचना आदि में कथ्य के भोक्ता प्रियतम श्रीहरि का ही सुख है अर्थात् उनकी ही हिय ध्वनि को अंकित करती वह वाणी है क्योंकि प्रेमी-प्रियतम को पृथकत्व की आवश्यकता है तो लीला विलास हेतु । प्रेमियों की वाणी में संक्षिप्त में पूर्ण रस सार होता है क्योकि वहां भावनिरूपण तो ऐसा रहता है जैसा प्रेमी भीगकर बेख़ुदी में आह्लादित है  और शब्द होते प्रेमास्पद है ( प्रेमी रसिक वाणियों में वह स्वरूप-स्वभाव से वास में है क्योंकि यहाँ उनके हृदय की न्यूनतम हरकतें भी श्रृंगारित विलस रही है )। श्रीहरि स्वयं के भाव-रूप को कह रहे है तो प्रेमी हृदय से क्योंकि अपने हृदय से वह प्रेमी हृदय जैसा रसीला नही कह सकेगें स्वयं को सो मीरा के गिरधर होकर ध्वनित होने से सुख द्विगुणित हिय होकर आह्लादित होता है । प्रेमियों की बेखुदियों (भाव-समाधि या भजन) में ही प्रेमास्पद प्रगट हो पाते है । और बेखुदी में खुदी कहाँ होती है सो दिल बह जाता है अर्थात् गोपनीयता तक बह जाती है । यहाँ मन ईश्वर का और स्वरूप प्रेमी का तो बात बड़ी रोचक हो जाती है । प्रीति ही प्रियतम को ध्वनित या प्रकट सकती है और प्रीति जिसमें है उसमें उन्हीं की शरणागति है अर्थात् निजचाकर से ही प्रेम-चाकरी (भाव-रूप स्पर्श हेतु अनुभवित झरण) सम्भव है उन्हें चाहिए बेख़ुद प्रेमी । समस्त शक्तियां- सामर्थ्य-माधुर्य -ऐश्वर्य आदि प्रेमी में प्रियतम की ही है और निराभिमानता से वह निवृत्त है । 

प्रेमी को रस देने हेतु मिलन और विरह दो विभूति है । दोनों में ही रस है । मिलन में विरह और विरह में मिलन है । कैसे ? मिलन का विरह ही वेचित्य कहा गया है । यानि चित् न होना अर्थात मिलन है पर वहाँ चित् नहीं चित् विरह को विचार रहा है जैसे तुम न संग हुए तो ? या कब पूर्ण अपने में समालोगें ? नित्य संग है पर कब मिलोगे आदि । 

विरह में मिलन है वियोग का अर्थ विशेष योग । चित् पूर्ण रूपेण समाया हुआ हो प्रेमास्पद के रस में हो तो विरह दिखता है पर है मिलन । यें दोनों भाव ही साधक या प्रेमी में होते रहते है और दोनों ही रसवर्धक है । विरह में वेदना तीव्र होने से रस पूर्ण रूपेण बहता है । युगल रसिकों प्रेम के द्विदल विरह-मिलन से पृथक् नवीन मधुता मिलती है श्रीवृन्दावन रस अर्थात् इसमें विरह-मिलन दोनों के सौभाग्य लेकर ...संगिनी होकर तृषित श्रृंगार प्रकट होता रहता है (विस्तार आगे कभी)।एक बात और प्रेम वर्तमान की वस्तु है । और वर्तमान में रस हो तो निजश्रम नहीं चाहिए । श्रम होता है भविष्य का रस । प्रेम वर्तमान का रस है । प्रेमी को एकात्म और भीतरी अनुराग चाहिए । श्रम का प्रारम्भ अहम् से होगा जो कामना पूर्ति तक जायेगा । कामना पूर्ति प्रेम में नहीं और कामना निवृति के लिए श्रम नहीं होता । प्रेमी के लिए सदा सर्वदा सभी अवस्थाएं , सभी परिस्थितियां उन्ही प्रेमास्पद की सत्ता में उनके ही लिए रसमय है । जित देखूँ तित पाऊँ का हाल है ।  अतः द्वेष आदि का स्थान ही नहीं । प्रेम में रुखाई है तो भी रसमय । भावरस सजाने हेतु ही । 

प्रेमी की अवस्था परिवर्तन भी प्रेमी को बोधमय नहीं रहती जैसे फूल कब फल हुआ यह एक सहज क्रीडा है, कोई अभिनय नही कर रहा वह फूल । अपनी अवस्था से सम्बन्ध होना अर्थात अपना होना , प्रेमास्पद का न होना । किसी भी तरह का स्व से जुड़ाव । प्रेमी एक रज (मृतिका) वत् है जिसकी स्थितियां कुम्हार(आचार्य पीठ) जानता समझता है । तृषित । रस भाव नित्य कृपामय है युगल कृपा रहे ।। जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।। 26 नवम्बर 2015 ।

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