शास्त्र और सिद्ध , तृषित
जयजय जी ।
वर्तमान में हम प्रेम पथिक या भगवत पथिकों में सूक्ष्म स्तर तक अविवेक समा गया है । बहुत बारीकी से , जिसे हम तिरोहित नहीँ कर पा रहे ।
कोई भी दुर्घटना अगर एक दो पीढ़ी में लगातार हो जावें तो हम उसे परम्परा बना लेते है ।
जैसे विवाह में चमड़े के जुते की पूजन रूप शुरू ही एक मजाक आज रिवाज बन गई । या ऐसी ही कुछ परम्पराएं ।
यह बदलती हुई परम्परा "स्मृति" या "श्रुति" नहीँ है , कई पथिक इसे स्मृति कहते है । स्मृति तो नित्य तत्व है वह वास्तविकता में उतरने पर प्रकट होता है । अपने यथार्थ का स्मरण जो आंतरिक विधि कराती है वह स्मृति है । ऐसी ही स्वभाव प्राप्ति के बाद श्रुति प्रकट होती है । द्वंद में फँसे हम भले रट लें पुराण वह एक उपन्यास से अधिक कुछ अर्थ नहीँ रखते और स्वभाव जागृति होते ही अर्थात ईश्वर से अभिन्न सम्बन्ध होते ही बिना अध्ययन पुराण और वेद का एक एक अक्षर वैसे ही सत्य भासित हो जाता है जैसा लिखा गया । एक प्रतिशत वह न्यून नहीँ रहता ।
श्रोत्रिय और स्मार्त अर्थात श्रुति पर निर्भर और स्मृति अर्थात प्राप्त वेद पर निर्भर दोनों ही लौकिक परम्पराओं में स्मृति और श्रुति खोजते है ।
वैष्णव स्मार्त से भिन्न शाखा कैसे हुई यह विज्ञान स्मृति अर्थात प्राप्त शास्त्र में डूबे साधक कुछ समझ सकें , स्मार्त स्वरूप का विकास वैष्णवता है । अर्थात स्मरण तथ्य जो हमें प्राप्त उनसे भी गहरा शास्त्र जिसका प्रकट हो जावें क्योंकि वास्तविक साधक का ईश्वर से अभिन्न सम्बन्ध होने से होने वाली ईश्वर संग वार्ता शास्त्र के सार को ग्रहण करने में समर्थ होती है । ईश्वर बडी सरलता से सब सहज कर देते सभी द्वंद । इससे ऐसे साधक का आंतरिक जीवन स्वतः एक चलता फिरता शास्त्र होता है क्योंकि उनका अभंग सम्बन्ध है जिससे सत्य ही प्रकट और अभिव्यक्त होता है इसलिये सिद्ध की कही वाणी सदा शास्त्र के सार को लिये होती रही है , ऐसा नहीँ वह शास्त्र का आलोचक है अपितु उन्होंने ही शास्त्र के अप्राकृत स्वरूप का दर्शन किया और सार रस पान किया । फल के सार का पान सहज नहीँ होता , सम्पूर्ण फल में रस है यह जानने वाला ही केवल रस को खेंच सकता है । अर्थात वास्तविक सिद्ध शास्त्र से प्राकृत न जुड़ कर भी आंतरिक एकत्व प्राप्त कर चुके होते है ।
वर्तमान में "क्यों" के संग हम शास्त्र से जुड़ते , लोग कथा में आते और कुछ तो जीवन भर कथा स्वयं करते और फिर भी उनमें उन्हीं कथानकों पर प्रश्न भीतर रहता , प्रश्न सिद्ध करता है आप अभिन्न न हो सकें उस शास्त्र से , आप उसमेँ आंशिक सत्य तलाश रहे है जबकि वह अक्षर-अक्षर सत्य है ।
सिद्ध स्वयं शास्त्र है जिससे उसमें अक्षरगत सत्य भीतर प्रकट होता है । सिद्ध भी शास्त्र के अक्षर-अक्षर को सत्य जान भी वैसा ही कहते नहीँ ,हाँ जी जरूर लेते है । अर्थात अनुभव कर लेते है अभिव्यक्त तो पात्रता पर निर्भर रहती है ।
सिद्ध सन्मुख पिपासू की आंतरिक पिपासा से ही अभिव्यक्त हो पाते है , पिपासु गहरा हुआ तो मौन संवाद में भी रसपान बहुत होता है ।
और सन्त मौन रूप अधिक कृपा करते है अपितु प्रकट शब्द रूप के । लिखना कुछ और था , उतर कुछ और गया अतः पुनः ... ।। इस विषय पर विराम लगाते है । क्षमा । सत्यजीत तृषित । जयजश्यामाश्याम ।
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