दुःख का प्रभाव , तृषित

यह बड़ी सत्य बात सन्त कहे , कि हम सुख में भी अपने से सूखी को देखकर दुःखी हो जाते है और दुःख में अपने गहरे दुःखी को देख कर सुखी हो जाते है ।
अर्थात सुख दुःख की भावना निराधार अज्ञान वृत्ति है ।
सुख को सबमें हिस्सा बना कर हम सुख का विस्तार कर सकते है और दुःख की अवस्था के प्रभाव से हमारी क्षमता का विकास कर सकते है ।
दुःख से अधिक कल्याणप्रद कुछ नहीं । दुःख का सदुपयोग हम कर नहीँ पाते और उससे भयभीत रहते है जिससे उस दुःख का भोग ही होता है और दुःख के प्रभाव को जीने से आंतरिक विकास होता है । दुःख का प्रभाव अर्थात प्रत्येक परिस्थिति को ईश्वर का प्रसाद जानना । दुःख की अवस्था में भी कल्याण को पाना दुःख को विलुप्त कर देता है । और इससे बेहतर दुःख से छुटकारे का उपाय नहीँ , यह सत्य है दुःख का परिणाम आनन्द है । अर्थात दुःख अवसर है और दुःख के भय के कारण हम चुक जाते है ।
विषमता में कृपा दर्शन ही कृपा का दर्शन है वरन मन की होने में तो हर कोई राजी है । उनका वही हो सकता है जिसके मन की न हो और वह राजी हो

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