मुझ विष्ट कीट को उनका आश्रय , तृषित
मुझे पता है मेरी विष्टा कीट तक की गति से भी निकाल अपने नेह की समीर से आंतरिक पावक से विशुद्ध करने में मेरे प्राण समर्थ है ।
बात उनकी समर्थता की नहीँ मेरी असमर्थता की है ।
मेरे लिये वह निधि है जिसके लिये मेरे समीप एक अणु मात्र कुछ नही । उस परम् निधि दिव्य चन्द्र के समक्ष मैं अणु मात्र उनमें कब की समाई हुई उन्हें ही निरखने में डूबी हुई हूं ।
उनकी महत्त ऐश्वर्य को विस्मृत कर माधुर्य रस के प्रभाव से मुझमें उनके प्रति ऐसा प्रेम का परमाणु विस्फोट करता है कि अणु मात्र की पृथकता असहज कर देती है ।
मेरे लिये "प्राण" अप्रयत्न से दर्शित रससुधा चन्द्र वत है ।
मैं प्रयत्न का स्वप्न भर उनके हेतु नहीँ कर सकती क्योंकि मेरे प्रयत्नों ने विष्टा कीट तक की योनियों का गमन किया ।
मुझे अप्रयत्न में प्रकट नाथ के प्रयत्न की सहज दर्शन में ही इतनी तीव्र व्याकुलता उनके रस से प्रकट होती है कि स्वभाव से मुझे भस्म हो जाना चाहिये था ।परन्तु अपनी अज्ञानता और अपनीअन्य दुराशाओं के परिणामस्वरूप उनके नाम रूप दर्शन से अभिन्न हो कर भी भिन्न जीवन में बाध्य हूँ ।
अगर मुझमे सहज शरणागति उदय होती तो मैं जीवन रूप रस से अपने प्यारे को रिझा न पाती अर्थात अभिन्नता में यह उनसे विरहित अणु होना उन्हें रसमग्न कर सकता है परन्तु मुझमे अपने प्रियतम चरण रज की पिपासा के अतिरिक्त अन्य समस्त भावनायें उनके सुमधुर दर्शन में भस्म हो जाएं और भाव रूप मैं उनसे लिपटी एक बैल रह जाऊँ जिसे वृक्ष रूप प्रियतम सदा थामे हो । मेरे श्रम से जनित यह विरह उनके प्रेम से प्रकट उनके चरण अनुराग में कभी पूर्णतः छट जायेगा और वहाँ वह ही होंगे । और मै उनमें उतरी एक उनकी ही निज अनुभूति जिसे वह मुझसे भी व्यक्त नही कर सकेंगे । वह फिर द्वेत नही करेगे सदा अभिन्न ही रखेगे अपने में पिरो कर । अणु मात्र पृथकता न होगी जब मेरा मेरे मूल अस्तित्व में मिलन होगा । नित्य मिलन । तृषित । जयजय श्यामाश्याम ।
उनके रस में जड़ को जब पृथक चेतन होना हो इससे बेहतर वह प्रेम समाधि में जड ही रहे । शेष उपादान में निष्क्रिय एक पाषाण कण अपने प्रेम से अभिन्न होने में अन्य समस्त दृश्य जगत की हलचलों से बेहतर है । प्रेम मूर्छा की जड़ता धन्य है कही न कही वह चेतन से अपृथकता कह देती है । वही गिर्राज है , वही उसे धारण करते है , वही उसी गिरार्ज की तलहटी में बिहार करते है ।
तृषित । जयजय श्यामाश्याम
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