कौन हो तुम , सबसे न्यारे-- तृषित
कौन हो तुम ?
मैं कहूँ ... कौन हो !!!
सबसे अलग !
सबसे न्यारे !!
सारी सृष्टि से भिन्न हो तुम !!
दिव्य !
अपरिमित !
गहन हो तुम !
तुम ही सत्य हो ,
शेष असत्य !!
तुम इतने विराट हो
कि स्वयं को ...
परिभाषित नहीँ कर सकते ।
ईश्वर को कर सकते हो ,
वह सरल और सहज है !
तुम जटिल पहली हो !!
अपवाद हो तुम !!!
यह कल्पना है , सभी की
स्वचित्र को लेकर !
मैं विशेष हूँ !
अपवाद ही हूँ !
और इसी विचारधारा के चलते
तुम स्नान नहीँ करते ,
आवश्यकता अनुभूत् नहीँ होती !
क्योंकि एक मात्र विशुद्ध वस्तु तो
"मैं" ही हूँ ।।
अतः जल बाहर से गिर लौट आता है
अन्तस् युगों से नहाया ही नहीँ
क्योंकि वह स्वयं को
स्वर्ण ही नहीँ पारस कहता है !!
तुम सुनना चाहते हो
तुम ...
अद्भुत हो
सुंदर हो
पावन हो
श्रेष्ट हो
प्रेममय हो
रसमय हो
पूर्ण हो
निर्मल हो
दोष रहित हो
सत्य हो
प्रकाश हो
आनन्द हो ।।।
हाँ , तुम हो भी सकते हो !!
पर क्या तुमने
स्वदोष खोज लिये , तृषित !!!
नहीँ , तुममें कोई दोष ही नहीँ
यहीँ भयानक रोग लगा है तुम्हें !
अपना बचाव नहीँ !
अपना आत्मशोधन करो !
दिव्य सरोवर में स्नान करो !
वह स्नान सम्पूर्णता को दिव्य करेगा !
तब तुम विशेष क्या ??
... अवशेष भी ना रहोंगे !!
क्या हमने आत्म रूपांतरण किया !
अथवा हमारी युगों की धारणा ...
मुझसा दिव्य कुछ नहीँ ,
भीतर कहीँ अखण्ड ज्योत बन चुकी है ।
---- सत्यजीत तृषित ।।।।
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