हाँ संसार मैं दुःखी हूँ , अब मुस्कुरा दो

बीते दिनों एक अनुभव फिर हुआ । जब भी संसार का दर्शन हो , होता ही है । और संसार जब विलुप्त हो वहीँ शाश्वत प्रियवर ही रह जावें तब वहीँ ही दिव्य हो उठता ।
दुःख का सम्बन्ध संसार से गहन है , बहुत गहन । जब भी संसार समीप आया बता गया मेरी वर्तमान अवस्था रोने की है , समझा गया मुझे रोना चाहिये । अभी मैंने पत्थर इक्कठे नहीँ किये मुझे रोना ही चाहिये । मुझे महल देख कर भी रोना आना चाहिये कि मेरे पास आशियां ही नहीँ । है पर फिर भी नहीँ रहा , अतः और विलाप करना है , इत्यादि ।
यह संसार जिस स्थिति में कहता है वह अवस्था इस चिंतन से भी छूटती नहीँ । सहज दुःख नहीँ होता । कहीँ कुछ है जिसे स्थितियों से भेद नहीँ वह आनन्दित ही है । और बाहर के प्रयास में खुद भी सोचने लगता हूँ इतना कुछ रोने को है , पर रो नहीँ रहा , क्यों ???
पता चलता है विलाप , रूदन अब जगत् के नहीँ । फिर तो जगत् और पीड़ित हो उठता है , जिन हालातों में रोना है उनमें भी अश्क़ नहीँ , है तो वजह और कोई । जगत् बेचारा इसके बस कि नहीँ नित्य आनंद को देखना अतः दुःख ही अब बाहरी आवरण हो गया , इससे भीतर का रस सुरक्षित है । दुःखी जान संसार की सन्तुष्टि रह ही जाती है , वह खुश होता है ।
एक गजब की बात बीते जीवन में जब स्तम्भ का संग छुटा तब बहुत विलाप किया गया । मैं देखता रहा रो भी न सका , क्योंकि सब मेरे ही लिये रो रहे थे , मेरे दुःख के लिये । तब भी अब अनुभूत् हुआ कोई था जो चुपके-चुपके बतिया रहा था । लोग इतना रोये लगा , इन्हें गजब का प्यार है मुझसे । एक गया बहुत मिल गए वाह । फिर पता लगा उन्हें मुझसे नहीँ मेरे दुःख से नाता रखना था , जब भी ख़ुशी आती ज़िंदगी में उन्हें पीड़ा होती , और दुःख का अभिनय ही करना होता , गलती से भी हँसी आ जाती तो घण्टों के ताने और डाँट कि रोने का दौर है , रो बस रो , हँस मत । वाह संसार ।
अब देखा जो हल्ले किये कि मेरे दुःख से दुःखी है वह अब किसी ख़ुशी से भी उन्हें दुःखी ही पाया , वजह मेरा दुःख उनका आंतरिक सुख था , अब मेरा सुख उन्हें अपने सुख के अभाव को दिखाता है ।
आज खुद को देखता हूँ बाहर वह है जो रोता है जगत् को लगता है जगत् के लिये , पर अब किसी कोने में दर्द नहीँ और आवरण की भी वजह कुछ और है । पर, हाँ संसार मैं दुःखी हूँ , अब तुम मुस्कुरा दो --- सत्यजीत तृषित ।

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