एक चंचल झिझक --श्रिया शर्मा
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एक चंचल झिझक, एक अल्हड़ पयाम
हाय! प्रियतम का वो पहला सलाम
फूल रुख़्सार के रसमसाने लगे
रंग सा सुंदर मुखड़े से छलकने लगा
सिर से रंगीन आँचल धलकने लगा
अजनबियत निगाहें चुराने लगी
दिल धड़कने लगा, लहर आने लगी
साँस में एक गुलाबी गिरह पड़ गयी
होंठ थर्रायें, सिमटे, नज़र पड़ गयीं
रह गया उम्र भर के लिए ये हिजाब
क्यूँ न संभली हुयी दे सकी मैं जवाब
क्यों मैं बेख़ुदी में सहमी सहमी सी
उनकी मस्त नज़रों में तकने लगी
क्यूँ मैं घुलने लगी और बिखरने लगी
तृषित नज़रें घबरा के मुखड़े को तकने लगी
एक मासूम अरमान मचलने लगी
छोड़ना न मुझे,प्रिये! ऐसा कहने लगी
एक चंचल झिझक फिर से होने लगी
साँस में गुलाबी गिरह फिर से पड़ने लगी
तृषित नज़रें घबरा के मुखड़े को तकने लगी
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