किसी दिन आहिस्ता-आहिस्ता मैं उनमें घुलने लगी -- तृषित
किसी दिन आहिस्ता-आहिस्ता मैं उनमें घुलने लगी
आज वहीँ दिन मेरी और उनकी निगाहोँ में है
और तुमने ली थी तब महकती साँसें
उनकी महकती सलवटें मेरी बातों में है
यूँ तो हमने हर दफ़ा सदियाँ संग देखी है
फिर एक दिन ने मिलन की रेखा खींची है
उसी दिन की आज आरज़ू में हम जवाँ थे हुये
और तुमने भी तो अपनी मुहब्बत उस दिन जी ली है
यूँ तो हमने सौंपी थी ज़िंदगी आपके कदमों में
फिर लगता है आपके आसरे में हमने कुछ कभी दिया ही नहीँ
अब जीती हूँ मैं दोहरी ज़िंदगी एक तेरे संग एक तेरे बगैर
और जीते हो तुम भी मेरे बगैर मुझे ही हर साँझ सवेर
आपकी जो बात सांसों से उलझ जाती है
वहीँ मेरे होंठो की आवाज़ हो जाती है
हम तो उसके होकर भी ज़िंदगी को इंतज़ार कर बैठे है
कोई समझे या ना समझे हम उसकी उल्फ़त पर मर बैठे है
हम अंदाज़े बयाँ मुहब्बत सरे बाज़ार उनसे करते है
और वो भी अंदाज़े खामोशियों में तन्हाइयों में पुकारा हमें करते है
फ़क़त उस शाम का सज़दा हम सरगोशी से करते है ।
जिस शाम वह अपने हाथों में हमारे हाथों को पकड़ते है ।
सत्यजीत तृषित
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