मन-युद्ध , तृषित
मन-युद्ध
मन-युद्ध क्यों ?
मन की पकड़ी अंगुली भी क्यों ?
मन से विरोध असम्भव है , तृषित
मन वहीँ है जो तूने कल देखा
मन स्वर्ग के पुष्प को नहीँ सूंघ सकता
मन ने उसका विचार ना किया
विचारों का थैला , जिस पर लिख दिया , मन !!
मन , चलता सदा बाज़ारों में
भरने अपना थैला
और फिर भी रहता खाली
मन का थैला दे दो किसी व्यापक को
वह उसमें शब्द भर देगा ,
मन वहाँ स्वयं को भरा ही पायेगा
किसी नवनीत स्पर्श से
यहाँ नवनीत ही मन के थैले को भुला सकता है
मन छुटेगा नहीँ ,
वह नवनीत रस को पीने हेतु वायु बन जायेगा
उसका आकार ना रहेगा
निराकार हो जायेगा
और फिर जीवन ऊर्जा यथार्थ पर होगी
मन से युद्ध स्वयं को ही तोड़ स्वयं से युद्ध है
मन का संग स्वयं को ही भूल स्वयं की पोटली की रजामंद है
मन के गुब्बारे में हवा इतनी हो
दीवार विलीन हो जाएं
हवा रह जाये
गुब्बारे की हवा निकलने से
गुब्बारा रहेगा , पीड़ित सा
और फिर चाहोंगे उसे फुलाना
गुब्बारे से कोई शत्रुता नहीँ
ना ही इतनी प्रियता की उसे ना ही फुलावें
शाश्वत वायु से प्रियता गुब्बारे को असीम कर देगी वह विलीन हो जायेगा
मनयुद्ध नहीँ ,
यह पराजय है मन हारे तब भी
मन जीते तब भी
मन बेचारा व्यापक का प्यासा
उसे तुमने संसार की व्यापकता दिखा दी
सो वह समेटने लगा संसार ही भीतर
मन गुब्बारा वायुमण्डल नहीँ पी सकता
घट... आकाश नहीँ पी सकता
मन की अपनी सीमा है , वहीँ दीवार
वह टूटी तो घट आकाश में डूब सकेगा
शाश्वत के स्पर्श से इस घट की माटी पिघलती है
फिर अस्तित्व रहता शाश्वत का और मन और तुम उसमें डूबे
अभिन्न ...
मन युद्ध से मन पक्का होगा
तुम उससे लड़कर उसके अस्तित्व को सिद्ध कर दोंगे
तुमने कभी बिना चोंच का पक्षी देखा ...
नहीँ देखा , ना सुना , सो नहीँ मानोगें ,
तुमने मन भी नहीँ देखा , और मान भी लिया उसे ,
तुम सदा से कोमल हो मानव !!
बस यहीँ मन है ! ... प्राप्त बोध !!! एक रेखा !!!
विचारों का संकलन !!!
अपने एक एक विचार को हटा कर देखो ,
जब विचार न रहा , तो मन भी ना होगा ,
मन विचारों से पृथक् नहीँ ।
---सत्यजीत तृषित
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