दृष्टि और मान्यता
दृष्टि और मान्यता --
हमारे पास एक कमाल की चीज़ है , दर्शन अर्थात् दृष्टि ।
इसमें गहन सामर्थ्य है , इतना गहन कि आप किसी को हय (कमजोर) देखो तो वह वैसा होने लगे ।
या किसी को महापुरुष स्वीकार करो तो वह उस स्थिति को अनुभूत् करने लगे । अर्थात् हम सुंदरता ही देखना चाहें तो कुरूपता की सत्ता सामने होगी ही नहीँ ।
एक ही व्यक्ति को कोई मित्र , कोई शत्रु और कोई गुरु स्वरूप भी मानते है । वहीँ व्यक्ति जो जैसा मानता है उस रस में होने लगता है । क्योंकि यह हमारी दृष्टि की मांग है । किसी के शत्रु होने पर गुरू हमारे लिये परम् हितैषी ही होंगे । कारण यहीँ दृष्टि उठी है ।
प्रेम की भावना सन्मुख प्रेम प्रकट कर देगी और द्वेष की भावना को ग्रहण करते ही सन्मुख व्यक्ति भी द्वेषित रहेगा ।
ईश्वर संग भी ऐसा ही है ईश्वर से सम्बन्ध , मिलन आदि सभी मान्यता पर निर्भर है अर्थात् हमारे नेत्र क्या देखते है ।
सभी और स्व से श्रेष्ट देखने पर स्वतः दीनता उदय होती है । और वास्तव में वहाँ च्हूँ और श्रेष्ट ही होता है । अतः भावना हो च्हूँ और राम की तब वहीँ ही होंगे ।
हम स्वयं को श्रेष्ट मान सामने हय और गौण को ही देखते और मानते है , और वैसा ही प्रतिफल पाते है । सत्यजीत तृषित
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