निद्रा और साधक , सत्यजीत तृषित
नींद भोग अवस्था से है , मन की एकाग्रता पक्की होने पर उसे कम किया जा सकता है । जीवन में जितना जागना शेष हो उतनी ही निद्रा शेष रहती है , और वास्तविक जाग्रति पर निद्रा नहीँ रहती । वह तटस्थ अवस्था परम् योगी को समाधि से और परम् प्रेमी को भगवत् विरह रस से सुलभ है । भगवतलीला से जब तक निद्रा आवें अर्थात् भगवत् प्रीति नहीँ क्योंकि प्रीति जहाँ होगी वहां निद्रा नही होगी । तन की आवश्यकता कम उपयोग में लेने पर तन निद्रा रहित रह सकता है , जगत में यह रोग है । प्रेमी का रोग तो निद्रा है ।
निद्रा के पीछे कारण शरीर कार्य करता है । मन किसी काम से दो घण्टे में ऊब जावें तो पूरा तन थकान अनुभव करेगा । मन सारा दिन न ऊबे तो तन स्फूर्त रहेगा । मैं कई लोभियों को या धन पिपासुओं को कई रात जागता हुआ देखता हूँ । और बहुत से साधकों को भी जागता हुआ पाया है । भोगी - लोभी को भगवत् रस उसके मन के अनुरूप नही अतः सोयेगा ही , वह तो भोग विलास साधन जुटावें , तो रात दिन एक कर देगा ।
ऐसे ही साधक या प्रेमी को संसार में लगा दो वह शीघ्र थकेगा और सोयेगा । भजन भी नही करेगा क्योंकि भाव के विपरीत आवरण परमाणुओं के निकास के लिये सोना ही वहाँ भजन होगा ।
आज भी छात्र जगत कई रात्रि अध्ययन करता ही है । क्योंकि मन अध्ययन के प्रतिफल परीक्षा परिणाम पर अटक गया है । गोपी रस में प्रेम मूर्छा ही निद्रा है , उस मूर्छा में ही उनका शरीर सुव्यवस्थित होता है । कभी भाव में प्रियतम या प्रिया जु ही स्वयं सुलाते है , और कभी कहते है सो जा बावरी , तू न सोयेगी मैं भी न सोऊँगा , अतः उन हेतु ही सोना वहाँ होता है । इस तरह पूरा जीवन बाहर से सामान्य सा चलता है भीतर स्वेच्छा नहीँ , वह कहते रहते है , माया से छुट कर भी शेष प्रपञ्च का निर्वहन होता है , पर अगर शरणागति हो गई तब शरणागति उपरान्त किसी कार्य विधि के परिणाम में शुभ अशुभ अर्थात् पाप-पूण्य विचार नही रहता है ।
हम भोगियों जगतमय प्राणियों को निद्रा इसलिये आती है क्योंकि जीव को एकांत चाहिये और मन को थिरता वह हो नही पाता अतः निद्रा काल में जगत् का आंशिक त्याग भोग जगत करता ही है । मन से जितना विषय त्याग हो जावेगा , एकांत जितना पक्का हो जावेगा , उतनी निद्रा की आवश्यकता नही रहेगी । निद्रा में भी चेतन तत्व तो सोता नही है , वह तन के संग न होने से नव नव संसार बना लेता है और स्वप्न रूप में रस लेता है । चेतन को भी भगवत् प्यास है यह वह जब जान जाएगा तो सदा एक रस रहेगा । स्वप्न भगवत् लीला रस मय होंगे । प्रियतम स्वप्न हो तो स्वप्न हेतु निद्रा स्वीकार हो जाती है । भगवत् शरणागति ही वास्तविक विश्राम है , भगवत् चरण में ही सुकूँ है यह जब पता चल जावें तो मन वास्तविक शांति हेतु भागे और वह वास्तविक शान्ति भी ना भोगने से नित्य चरणाश्रय हो जावेंगी और नित्य आनन्द प्रकट होगा । कहना इसे सरल है , जीवन्त निर्वाह सरल नहीँ । त्यागमय जीवन ही प्रेममय जीवन हो सकता है और प्रेममय जीवन ही रसमय जीवन और रसमय जीवन ही भगवत् समर्पित जीवन है । सत्यजीत तृषित
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