जन्मोत्सव का लेख , तृषित

जयजय श्यामाश्याम ।  जन्मोत्सव की हार्दिक बधाई जी । आप सभी हरि प्रिय जनोँ से तृषावर्धन की आशा में एक तृषित जीव । उत्सव रस में बाधा न पड़े अतः किसी तरह की बात नही करने का ही मन होते हुए भी जन्मोत्सव को कुछ अनुभूत कर लेते है । उत्सव में होने पर इसे उत्सव उपरांत ही पढियेगा । भगवतोत्सव ही रस है , और वह अवश्य किसी भी जाल में फंसे जीव को भगवत् रस की ओर लालायित करता है , भगवत् धाम तो नित्य नव नव उत्सवों से ही सजे होते है । सत्-चित्-आनन्द का आनन्द तो नित्य है और वर्धनमान है ।
किसी भी वस्तु को प्रकट होने के लिये स्थल चाहिये । बीज भूमि की अपेक्षा करता है । "कृष्ण" में कृष भू वाचक है । कृषि - कृषक आदि शब्द हमने सुने ही है न । वही कृष् यहाँ ष् आधा है क्योंकि जिस भूमि की यहाँ बात हो रही है वह भूमि प्राकृत नही है अप्राकृत है , यह मेरा मानस भर है , ष् के आधे होने पर । मैं ज्ञान शून्य हूँ अतः व्याकरण से सम्भवतः यह सम्बंधित न हो । संस्कृत में मैंने अनुभूत किया जहाँ गुण कहते न बनते हो वहाँ शब्द आधा रह जाता है , अव्यक्त को कहते कहते भी वाणी अधीर होने से सदा गुण वाचक शब्दों में हलन्त हो ही जाता है , यह भाव पक्ष है , व्याकरण पक्ष नही ।
अतः कृष् भू वाचक है यह तो शास्त्र मत है ही । "ण" यहाँ निरतिशय अविरल अनन्त आनन्द का वाचक है । अतः कृष्ण नाम में कृष् यानी भूमि अधिक और आनन्द उसके उपरान्त एक अक्षरी ही है ।
भूमि क्या है ? -- सत्ता ।
सत्ता क्या है -- भाव ।
भाव क्या है -- अत्यधिक एकात्म होने से अभीष्ट के चित्रण की चित् की द्रविभूत अवस्था । (इसे विस्तार से कभी वाणी माध्यम से भगवत्कृपा से व्यक्त करने का प्रयास रहेगा) ।

अतः भाव उपरांत आनन्द । भाव की भूमि पर सदा रहने और बढ़ते रहने वाला आनन्द । अतः पहली आवश्यकता है आनन्द के लिये भूमि की , और वह है भाव ।
भाव क्या है ? -- प्रेम अवस्था , और इस प्रेम अवस्था का मूल सार रस स्वरूप क्या है ? वह है श्री श्यामा जु । किशोरी जु ।
यशोदा - यश: ददाति इति यशोदा । जो दूसरों को यश दे वह यशोदा है , इस स्वरूप से देने के लिये होना भी चाहिये जिसमें अपार यश वर्षा हो वही स्वरूपा यशोदा है । संसार में यश दिया नही जाता , लिया जाता है । यह पूर्ण ऐश्वर्यमयी अवस्था है । वृन्दावन की  बाला-बाला ऐश्वर्यमयी श्री लक्ष्मी स्वरूपा है , वही तो यश दे सकेंगी जिसमें हो ।

नन्द - जो सभी को आनन्द देते हो वह नन्द है । आनन्द देता कौन है ? आनन्द की ही तो सदा माँग रहती है , फूहड़ से फूहड़ पथ और गहन से गहन सभी और हमारी चेतना आनन्द की प्यास में भागती है । देता कौन है , फिर वहीँ बात , वहीँ देगा जो अपार राशि धारण किये हो । जिससे आनन्द सम्भालें न सम्भले ।
वाणी , विचार , सदाचार आदि से जो सबको आनन्द देवें वहीँ भगवान पधारते है । जो आनन्द देता है वह स्वयं परमानंद प्राप्त है ।
भगवान स्वयं ही आनन्द प्रदायक है अन्य कोई कैसे दे सकता है , अतः नन्द स्वरूप भी मधुर-रससार "आनन्द" राशि का सम्पूर्ण सार ही प्रकट है ।
भगवान से भिन्न कुछ कैसे हो सकता है । श्री कृष्ण जिस तरह की नव भावनाओं के स्रोत बन अवतरण लेना चाहते है उस हेतु भूमि और विकास भी वैसा ही चाहिये । अतः नन्द-यशोदा यह सब भगवत् स्वरूप ही है और ब्रज क्षेत्र तो ऐश्वर्य की पराकाष्ठ स्वरूप धाम वैकुण्ठ की माधुर्य लालसा की ओर उठा हुआ उससे ही विकसित माधुर्य क्षेत्र है । अतः वह जिस आवश्यकता में फलित होगा वह सब नारायणत्व और श्री के बीज से फलित होगा ।
श्री कृष्ण में चार माधुर्य अन्य नारायण स्वरूपों से भी विशेष है - वेणु माधुरी , प्रेम माधुरी , रूप माधुरी , लीला माधुरी ।
अतः जिन्हें ऐसे भगवत् स्वरूप की पिपासा हो वह यहाँ श्याम दर्शनातुर है ।
वसुदेव और देवकी माँ भी इसी तरह पूर्णत्व स्वरूप है , वह कश्यप-अदिति अवतार तो है ही । कश्यप-अदिति भी भगवान से भिन्न तो नही । अपितु भगवत् अवतरण होता कब है पूर्णतः निर्मल चित् में , जहाँ छिलका ही जीव रह जावे अंदर रस-माधुर्य-आनन्द रूप भगवान ही रह जावें । छिलकों के नाम से वहीँ स्वयं अवतरित होते है । मनुष्य से पशु का जन्म नही होता , पशु से मनुष्य का नही होता । जैसा भीतर रस है वहीँ प्रकट होगा । भगवान ही जब भीतर रह जावें बाहर छिलका कोई भी हो तब रस तत्व आनन्द सार श्री कृष्ण अवतरण लेते है । कहने को जन्मोत्सव है , है अवतरणोत्सव । भगवान जन्म नहीँ लेते अवतार लेते है , अति विशेष भाव रस निर्मल चित् भूमि से ।

प्राची (पूर्व) दिशा से ही पूर्णचन्द्र उदय होता है ।
बंदऊँ कौशल्या दिशि प्राची ।
प्राची रूपी कौशल्या माँ से पूर्णतम आनन्द श्री राम प्रकट हुए ।

और भागवत जी में --
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः ।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशिन्दुरिवपुष्कलः ।

देवरूपिणी देवकी (मनुष्य रूपिणी नहीं कहा गया , यह देवत्व पिपासा से प्राप्त निर्मलत्व ही है ) में आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र ऐसे प्रकट हुए जैसे प्राची दिशा से पूर्णचन्द्र ।

पूर्णचन्द्र को उदय हेतु पूर्ण प्राची दिशा चाहिये । पूर्णिमा के अतिरिक्त पूर्ण पूर्व दिशा से चन्द्र उदय नही होता है । पूर्ण चन्द्र उदय हो रहा है विशुद्ध पूर्व दिशा से और हमारा चित् है आज पाश्चात्य मय ।
प्राची सम्बोधन का अर्थ है , निर्मल- विशुद्ध-सत्वमय देवकी रुपए प्राची । ब्रह्म का पूर्ण प्रकाश ब्रह्माकार में समाये हुये परम् सत्वमयी मानसी वृत्ति पर ही पुर्णोत्तम पुरुषोत्तम का प्राकट्य होता है । सात्विकता की पराकाष्ठा से ही पूर्ण स्वरूप का दर्शन सम्भव है , और प्रेम पिपासा से वह अवस्था आज भी सुलभ है । देवकी माँ उसी सात्विकता की अधिष्ठात्री महाशक्ति देवरूपिणी श्री देवकी है और उनमें पूर्णतम तत्व का आनन्दघन श्री कृष्णचंद्ररूप में प्राकट्य हुआ है । ... सत्यजीत तृषित ।

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