देह वृन्दावन हो , तृषित
वृन्दावन ।
यह देह ही बाधक न वृंदावन की । इसे ही वृंदावन होना होगा अब । इसकी समूल सत्ता का कारण यह मन और इस मन का कारण रूप । और रूप का सर्व-उत्तम कारण । निकुँज विलासी युगल । इसे उस रस की चटकारी लगा कर इसे उस सौंदर्य माधुर्य सार दिव्य रस जगत में एक बार डुबो कर फिर उस रस की नित् वृद्धिमय माधुरी में इंद्रियों को बहा बहा कर इस मन को प्यासा कर के , इसे युगल मन से अभिन्न होना होगा । तब यह मन और चेतना युगल वस्तु हो जावेगी और यह तन बृज रज और वृंदा(तुलसी) स्पर्श आदि से युगल पद चिंतन से हृदय में युगल के आ विराजने से हृदय कुञ्ज और देह वृन्दावन ही हो जायेगी । इस तरह यह देह नित्य प्रियालाल की रस्स्थली ही रह जायेगी । इसकी और कोई उपादेयता नही । अतः मन तू लाड़ली लाल के चरणों में घुल मिल जा , पदतल महावर बन स्वयं ही रम जा । फिर तुझे जो युगल स्पर्श हो और वृन्द रज का स्पर्श हो उन्हें संयुक्त कर युगल के मन्त्र से अभिमन्त्रित कर इस तन पर छीडकता रहे जब तक यह वृन्दावन की कोई डाल पात न हो जावें ।
तृषित ।
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