पत्थरों का इश्क़ , तृषित

उसके इश्क़ की खुश्बू में उतर जाओ और नज़र उसकी ओर कर जीवन समीर बह जाने दो । भीतर उसकी खुशबु उतरेगी उसे सूंघ कर भी छुओ नही , प्यास बढ़ेगी । उनकी मोहब्बत का एक कतरा जड़ हो जाने को बहुत है । और यह जड़ता ही तात्विक दृष्टि से चेतनता है । जीवन को कह दो , भई हम बिक गई किसी की नजरों से । तू अब उसकी धरोहर । वो जाने तू जाने , हो गई जड़ता , फिर जगत नही होगा , लीला होगी ।
जगत के कर्ता हम है । लीला के कर्ता भर्ता वह है । वह जगत फिर भगवत् धाम ही होगा । और हर और भगवत् रस धारा ही । अतः यह जो प्रेम है यहीं संजीवनी बुटी है और यहीं पाषाण कर देने वाला महारोग भी । परन्तु पाषाण भी तो वस्तु है , उसकी अनुभूति होती होगी जो पाषाण ही समझते होंगे । हमने ऐसा बहुत कुछ किया कि हम पत्थर सिद्ध है ही , बहुतों को पीड़ा दी ही है न । पत्थर लोग कहे ही है न , तब पाषाण वत् जो हो हमारे संग होता रहे । कोई कुछ करें , पाषाण को तोड़ मूर्त बनावे या घर । पाषाण की तडप उसका अग्रिम स्वरूप होगी ही । तड़प में केवल ईश्वरत्व से मिलन अभीप्सा है तो कोई सृष्टि उसे भौतिक विलास के आयोजन में किसी व्यभिचारी की दीवार में नही चुनवा सकती । हाँ अगर ऐसा हो भी गया तो यह तो और भी वेदना प्रदायक होगा न , यह तो परम् कृपा होगी । बरसों में दीवार टूटेगी , हम स्वतन्त्र होंगे । फिर कोई उसमें देवत्व देखेगा और हम तब हम नही वहीँ ही होंगे । लोग कहेंगे स्वयंभू विग्रह है , बनाये विग्रह से भी अधिक चमत्कृत स्वयंभू विग्रह होता है । उसकी वेदना युगों में उसे अभीष्ट स्वरूप में प्रकट कर देती है ।
तृषित ।

मोहब्बत तो पत्थरों ने ही की है
खुद से ख़ुदा तक बहुतों बार गुजरी है

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