कथा पॉइंट
प्यास , व्याकुलता , उत्कंठा श्री हरि की सच्ची हो तब हरि तत्क्षण संग अनुभूत हो । प्यास और प्रेम जगत की रहती और बाहरी दर्शन-सेवा भगवान का । वास्तव में दर्शन और सेवा की भी सच्ची अर्थात् काया , वाणी , मन और आत्मा से धुन लग जावें तो भगवत् प्रेम जागृत हो जावें ।
हम जितना प्रेम जगत से करते उतना भी भगवान से करें तो भगवान हमसे कितना प्रेम करते अनुभूत हो, क्योंकि जगत् से प्रेम करते वक्त भी भगवान नही छोड़े और भगवान से प्रेम होने पर जगत हमें अस्वीकार करेगा ।
मन कही भटकता नही , वही जाता है जो हमें पसन्द । संसार पसन्द हो तब भगवत् सत्संग भजन रस में भी संसार में जाएगा । भगवान पसन्द हो , भा जाएं तो उनकी और ही जायेगा , जगत में रहकर भी भगवत् मुखी मन होगा ।
अनुकूलता और प्रतिकुलता में भगवत् कृपा का रहना भक्ति है ।
कष्ट में भी कष्ट के दूर करने की प्रार्थना न हो , भगवत् कृपा से जो मिल रहा वह ही हमारा हित है ।
जब जीव माँगना भगवान से बन्द करता है तब भगवान स्वभाव अनुरूप दुःख हरण करते है और भगवान की दृष्टि में जगत का सम्बन्ध ही दुःख है अतः वह हमारे दुःख को हटाते है हमारे पथ के बाधक जगत को असिद्ध करते है ना कि सर्वस्व हरण कर लेते है । जगत में हमारे केवल भगवान है , शेष कुछ नही , कुछ और अपना मान लेना ही सैद्धान्तिक दुःख है ।
वास्तविक आनन्द अनुभूति उसे ही होगी जो उसे अनुभूत न करना चाहें , जैसे गोपियों को प्राप्त रस ।
भाव अर्थात् प्रेम और आनन्द परस्पर एक है , भाव का अर्थ है सत्ता । महाभाव रूपी श्री राधा रानी सत्ता है श्री कृष्ण उस भाव में समाहित आनन्द ।
भाव न होने पर आनन्द नही हो सकता , महाभाव न होने पर श्री कृष्ण चरण हृदय पर नही गिरते ।
मन्दिर जाते अर्थात् भगवत् सम्बन्ध पूर्व समय तय कर लें , मेरा कुछ नही है । यह वैराग्य हो गया । जगत और भगवान दोनों एक आसन पर नही बैठ सकते । इस लिये हृदय में यही अटल हो मेरा कुछ नही है ।
भगवत् अनुराग अर्थात् दर्शन में धारण कर लें भगवान ही मेरे अपने है बस । यह प्रेम हो गया ।
और पुनः जगत की हर वस्तु जब सामने हो उस हेतु जान लें जो भी है भगवान का है मेरा नही । उनका है अतः आदर बनेगा और जगत भगवत् राज्य तुल्य दर्शन देगा ।
भगवान कैसे है यह विचार कर भगवान से सम्बन्ध जो चाहता है , उनके कुल गोत्र वंश परम्परा आदि को ही जो जानना चाहता है वह तो सम्बन्ध चाहता ही नही ।
क्योंकि प्रेम विवाह में तो जात पात आती ही नही ।
फिर भी हमारी आत्मा उस परमात्मा की जाती की है अतः वास्तव में उनसे सम्बन्ध है , भले स्वीकार ना हो ।
अन्तः करण पिघलता है भगवत् धर्म से अर्थात् साधन भक्ति नवधा भक्ति से ।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यम् सख्यमात्मनिवेदनम् ।
जीवन श्रवण हो जावें
जीवन कीर्तन हो जावें
जीवन स्मरण हो जावें
जीवन पादसेवा हो जावें
जीवन अर्चन हो जावें
जीवन वंदन हो जावें
जीवन दास हो जावें
जीवन सखा हो जावें
जीवन की सम्पूर्ण आत्मा निवेदन हो ।
तब वास्तविक प्रेमा भक्ति प्रकट होगी । उस (द्रवीभूत) पिघले हुए चित् पर । हृदय पिघलने पर हरि के चरण चिन्ह छप जावेगें ।
श्री कृष्ण से तीव्र प्रेम होने पर जब वह जीवन में आयेगे तब अपने सच्चे रसिक को गोपीप्रेम और श्रीजी का भावरस देना चाहेंगे जैसे अर्जुन और उद्धव ।
कोई सुनने को तैयार हो तो वह अपने अन्तः करण को कहेगे और उनके हृदय में भीतर श्री जी का गहनतम रस है , अपने सच्चे प्रेमी को वह श्री जी की सेवा में चाहेंगे और ऐसे ही श्री जी अपनी सच्ची सखी को श्री कृष्णार्पण करेंगी ।
भजन ही सार हैं । कृपा फलित हुई तब भजन की धारा बहेगी । भजन की व्याकुलता भजन रसमय करती है । भजन कर्म साध्य नहीं , गुरु-भगवत् कृपा से साध्य है । भजन की प्राप्ति ही भगवान का पूर्ण अनुग्रह है। कृपा से अनुभूत भजन रसमय है , कर्म रूपी भजन श्रम रूप है जिसका लौकिक फल हो सकता है , रसमय फल नही । भजन से रस पृथक नहीँ , रस हेतु भजन अनिवार्य है । भजन या भगवत् सुमिरन कृपा है यह अनुभूति तत्क्षण रस प्रकट करती है। रस व्याकुलता में भजन नित्य हो जाता है और भजन की व्याकुलता गहराने लगती है ।
भगवत् प्रेमी को भगवान की अनुकूलता ही चाहिये , भले उसमें अपने लिये प्रतिकूलता हो । प्रियतम की हर वस्तु रस वर्धक है भले धूप में जलता तन हो या गहन सर्दी में ठिठुरता तन , उनसे मिली शीत और ताप प्रेमी को कष्ट नही रस देती है । उनकी अनुकूलता प्रधान रहे अपनी नही वही तो उनका होगा । हम अपनी मन्द मति से उन्हें अपने अनुकूल करना चाहते जबकि हम अपने इसी जन्म का पूरा याद नहीँ , जैसे बचपन याद नही और वह सदा से हमें जानते और मानते है ।
हमें हमारा नित्य भगवत् सम्बंध जानना है, कभी तो चेतना उनसे छुटी थी अर्थात् उनकी ही है उनसी ही है ,उनकी ही रहेगी । हमारा जगत नही , जगत उनका है , हमारे केवल वही है । यह खेल उनका है और हम इस खेल में उनके खिलौने ।
हम सबको भगवत लालसा है पर विषय भोग से वह प्रीति जगत् में लग कर काम वासना हो गई है ।
हम जिस खोज में लगे है उसे जानते भी नही , भटक रहे है । यह केवल प्राप्त शक्ति का दुरपयोग है ।
संत शरणानन्द जी कहे है ।
व्यक्तिगत जीवन की ओर ,
जब मानव ,
प्राप्त विवेक के प्रकाश में ,
बुद्धि दृष्टि से देखता है तब ,
उसे अपने में असमर्थता का बोध होता है ।
अपनी असमर्थता का ज्ञान ,
सामर्थ्य की आवश्यकता है ।
सत्य को सहारा नही चाहिये वह नित्य है , अतः सच्चा प्रेम बिन हेतु होगा , यानी बिना कारण । सच्चा त्याग बिन किये होगा स्वतः करना न पड़ेगा । सच्चा ज्ञान भी वह है जो स्वतः मिलें , बिना सीखे ।
प्रेम बिन हेतु होगा अतः सब कारण हटाने होंगे सारी चाहते हटानी होगी और जब सब कारण हटेंगे तब हम क्यों भगवान को चाहते है यह उत्तर अपने पास न हो तब भगवत् सम्बन्ध होगा ।
प्रियतम से मिलन प्रियतम द्वारा ही होता है ।
प्यास आवश्यकता है यहाँ , प्रयास होने चाहिये परन्तु मिलन और दर्शन उनकी अनुकम्पा से होता है ।
प्रियतम जब प्रियतम हो जावें अर्थात् सबसे प्रिय , मन और हृदय के अभिष्ट वही रह जावें तब प्रियतम की व्याकुलता उदित होती है ।और फिर हरि को वरने योग्य गुण हरि ही वहां प्रस्फुरित करते है , वह हरि मिलन के गुण उनकी ही कृपा से होते है और उनका समुचित स्तर तक निभ जाना भी प्रयासों से नही हरि कृपा से है । तब हरि संगम होता है । वह सबके है पर जहाँ जितनी पिपासा उतने ही उदित , और जहाँ वह वरण करना चाह लें वहां कुछ विशेष न होने पर भी सर्वता स्वतः हो जाती है और रस प्रकट हो जाता है । यहाँ हरि पिपासा और व्याकुलता की स्थिति में अपनी प्रियता को ही देखते है , और उसे ही वरण करते है ।
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