हे नाथ शरणागति क्या है पता नही ...
हे नाथ ! शरणागति क्या होती है पता नहीँ ।
बिल्ली के नन्हें शिशुओं सा आप के लिये आसक्त चित् नहीँ , कि आप ही उठाओं और जहाँ लें जाना है , लें चलो ।
बन्दर के बच्चों की तरह मजबूत पकड़ भी नहीँ , हाँ उतनी पकड़ संसार से है , दशा उस बन्दर सी है जिसका हाथ चने के दानों के लिये फंस गया , दाने छोड़ दे तो पात्र छुट जावें , पर दाने कैसे छोड़ दे ?
कहने को तो 24 घण्टे कह सकता हूँ हे नाथ तेरा हूँ । अपना कुछ भी नही मेरे पास , तेरा ही सहारा है ।
तन-मन-धन सब कुछ है तेरा क्या लागे मेरा । कहने में क्या है ?
एक ऐसा काल था कि व्यक्ति कहता नही था , और जी लेता था । कह दिया तो निभाता था । आज मानव शब्द शक्ति से परिचित नहीँ । वचन का महत्व नही । कसम ही झूठी खानी हो तो गीता की खाई जावें ।
प्रीत को झुठलाना है तो प्रभु जी की प्रीत झुठला दो ।
प्रभु कहाँ नहीँ है , उनके सन्मुख अभिनय चल नही सकता । मनुष्य सोचता है जो उन्हें दिखाऊँगा वहीँ दिखेगा , उन्हें सब दीखता है , आपके हर ख़्वाब की कतरने दिखती है । सब समझ आता है ।
सब कुछ तेरा ... सब कुछ है क्या ? झूठ - कपट - छल - पाखण्ड - लोभ - दम्भ - भोग आसक्ति , यही तो है हम में भरा हुआ । यह सब कुछ उनका ... ...!
चलो जो भी सब कुछ है उनका हुआ । जैसे लोक कथाओं में पुरानी हवेली के खण्डहर में भुत होते है , हवेली बिकते ही भीतर के भुतकीड़े - छिपकली , मकड़ी , जाले न जाने क्या-क्या सब बिन बेचे बिक जाता है , सबका मालिक फिर नया खरीददार हो जाता है , वैसी दशा हमारी है । परन्तु हवेली की तो सफाई नया मालिक करा लेता है ।
हम तो अपने दोषों के प्रति आसक्त है , हरि छुडाना भी चाहे तो हम छोड़ने वाले नही है ।
रोज कहेगें सब तेरा पर पलक का बाल भी झड़ कैसे जावें हमारा । सब तेरा कह कर हम हरि रूपी चौकीदारी चाहते है ।
वैसे हम भोगियों को विचार कर शरणागत होना चाहिए । दुखःहारी हरि को , हमारे भगवत् पथ की बाधा दुःख लगती है अतः जो बाधा है वह हट जाती है और हम कहते है जो उनका होता है उसका दुःख बढ़ जाता है , सब चला जाता है । उनके नेत्र सत्य पथ ही देखते और वह पथ को ही विकसित करते है , हम कह तो देते है पर होना चाहते उस पथ पर । हरि असत्य का श्रवण भी नही करते , जो कहा गया वही सत्य जानते । असत्य की सत्ता उन तक नही जाती । अतः हम झूठ कहते भी तो वह परम् शक्ति कहती "तथास्तु" ।
दुःख हरो , दारिद्र्य हरो , कष्ट हरो आदि आदि देना चाहते तो कैसे फिर ऐश्वर्य और आनन्दमय जीवन की शरणागति कर सकते है , एक कांच की गोली भी खो जावें तो प्राण हमारे निकल ही जावें , गजब का समर्पण है हमारा ।
एक और बात वास्तविक शरणागत भौतिक जगत में क़दम रख भी दें तो माया भगवती उसे लौटाने हेतु विचित्र लीला करती है , हरि की तरह हरि की वस्तु भी सत्य की भाषा ही समझते है और जगत असत्य का त्याग कर नही पाता , जगत के नित नव असत्य वचन , सत्य ही जानने से छलिया का छल हो जाता है ।
ऐसी दशा में जगत छले उससे बेहतर है साँवरे सरकार नेत्रों से छलते रहे , हरि की वस्तु को कोई छले भी तो क्यों छले यह अधिकार भी तो हरि का ही है न ।
सत्यजीत तृषित
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