काश हमें भी कभी उनसे इश्क़ होता , तृषित

[काश हमें भी कभी उनसे इश्क़ होता
सारी सारी रात भीगी आँखों से ज़माना जिनके कलमे पढ़ता है

हमने तेरी ख़ातिर तेरा नाम ज़ुबाँ पर गिला न किया था तुमने दिल जो लिया जुबां को फिर गुलाम तो होना ही था

तेरे रूबरू होने की चाहत मुझे कतरा कतरा भिगाती गई
बाहर बारिश बरसती गई अंदर सुखा उजड़ता गया

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चलो एक और ज़िन्दगी हो गई बेगानी
कभी लाख तुमने खुद को मुझमें उतारा
अब लाख मैंने खुद से खुद को निकलना चाहा
अब तुम उतरते नही , मैं निकलता भी नहीँ
कभी ख़ुद की गिरफ्त में मुहब्बत से बेगाना सफ़र था रहा
अब मुहब्बत से बेगाना खुद की गिरफ़्त में क़दम चलें

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