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Showing posts from 2021

स्वार्थ सिद्धि और भक्ति , तृषित

स्वार्थ सिद्धि कुछ भी हो वह भक्ति नही होती । भले श्रीभगवन प्रकट हो जावें तप या किसी भी साधन से पर प्रकट सकामता हेतु किये गए तो भक्ति नही हुई ।  भक्ति में भगवान को प्रकट होने के लिये कहना भी नही होता वह स्वयं वहाँ प्रेमातुर रहते है । भक्त-प्रेमी को आंशिक स्व हित नही केवल अपनत्व से अर्थ होता है , वहाँ कुछ लेन देन नही होती , वहाँ तो "श्री हरि" मेरे है और मैं सदा से उनका , उन हेतु यह भावना नित्य वृद्धित होती जाती है । "तृषित" एक सेवक मानस भाव से श्री विग्रह दूर होने से मानस रूप ही हाथ श्री विग्रह के चरणों की और बढ़ा चरण स्पर्श कर मस्तक फिर हृदय फिर चरणों की और कई देर करते रहे ... कई मैया मानस या दूर से श्री ठाकुर की आरती भावना कर उसे वारती है । बहुत सा जगत भगवत् सुमिरन करता है , अनेक कारणों से जैसे शांति-आनन्द प्राप्ति , कष्ट शमन , पुण्यार्जन , या कोई भी मनोरथ हेतु । ... इन सब क्रियाओं में प्रीत नही । स्व हित और तुष्टि-पुष्टि आदि ही यहाँ । भगवत् चरण मानस भाव में भगवत्प्रेमी भी छुते , पर आशीर्वाद लेने तक की भावना से नही ... चरण सेवा भाव से । चरण दबाते । चरण का मानस स्पर्श...

झुमहिं री ! सरस ललित कौंस छायौ , trishit

Do not Share  *झुमहिं री ! सरस ललित कौंस छायौ* *आजहूँ मधुरा जू माधव मधुर , मधु राग हिंडोलै ख्याल षट ऋतु विलास फूलै नव-नव रँग बरसायौ* *भरि भरि कृष्ण लास रस गौर मदन कम्प कौ मदिर शीतल मोहै उत्सव मद सरसै आयौ* *रस रङ्ग सङ्ग अलिन हित अरुण कपोल मधुपँक दृगनि सुख इत-उत झुमायौ* *मंग मोतिनु हार नीलाम्बुर हँसि हँसि करिनु अंगुरिन पेंच  झरिण राग खुबहिं लड़ायौ* *हुलसै अलिन कलित  शरद तुरङ्ग धमार पै जाड्यौ द्वार उघारै नवब्यार सँग श्रृंगार कौंस गायौ* *स्यामल-ललकी वेणी कबरी गुँथित केशनि कुसुमनि  नीलारुन पीत कटिनि बाँध कलहँसनि सिहरायौ* *सरद लजाई  चंद्र लजाह्यौ लाजहिं नछत्र तारिका सुतन सुरभ खण्डनि खण्ड लास रिसाह्यौ* *प्रेम केलि कौ निज सरूप मदन बन्यौ घनसार कौ मदिर प्यार गर्जन रजत-गुलाल ढुरकायौ* *सनन सन सन सरित तथई तत्थई थकहिं चरकै झरकै झण झँकै बहु नर्तन थिरकायौ* *नव केलि विलास तैई नवल सिहरन कैई नवनीत झारिन मैई मधुर कन्द परस शिशिरायौ* *उर अंतर थिर थिर कम्पै मधुपँक पँक पँकै रङ्गीलो तुंदिका लोभिनि लोभ कूप हेत लुभायौ* *पुलकै हुलकै सुख सरसावली अलिन परख निरख निज अनुराग झाँझ मुदित बहु मोद ल...

कैशोर्य उत्स , तृषित

 *कैशोर्य उत्स* किशोरित उत्स हेत प्राण निधि है शीतलता । लौकिक रीतियाँ भी जाती हुई शीतलता का यजन कर सविनय ऊष्ण सुखों का यामिनी में रँगा निर्माल्य भोग लगाकर जताती है शीतल वाञ्छा । कैशोर्य उत्स अनुभवित दशाएँ सहज शरदित है । किशोरता को लग रही जब बिहाग उत्स लालसा । स्वयं लीला जब शीतल स्पर्श है तब ही शरदाईं है ...लीला का निज कौमार्य है यह सुन्दर होती ... झूमती मधुर सरस शीतलता । भावरसिकों के मधु लोभी नयनों में सहज पावस हो बरसने लगती हो जब श्यामल अनुराग की लीलाकृतियाँ । अतिव सहज है शरद आगमन पर ललित लीला आगमन । सारित-सरित श्रृंगारों में सहज मुग्ध विलास की सुभग यात्रा है , जिसमें नित सरस होती साँझ की ज्योत्स्नाओं की पुलकताओं ने भजा है मदिर स्पर्शों से प्रकट लास्याँकन । नवीन शीतलता का यह विलास सहज घुमड़ता है और बढ़ती शीतलता सँग बरसती है परिमलित सुरँग ललिताईं । प्रेम जड़ - स्थूल पदार्थ नहीं , अपितु झूमती - सिहरती - पुलकती - फूलती - शिशिरित - गलित तरँग की ललित मुद्रा झारी है ...श्रीप्रेम । इष्ट है यह प्रेम , स्वयं रस का ...रसों के रस श्रीपिय का इष्ट । रस में सुभग प्रेम का वलयाँकन ही रसिक नागर में न...

शरद , युगल तृषित

    *। शरद ।*  अवतरण हुआ है प्रीत का पुनः "स्पर्श" ऋतू यह स्पंदन प्रति क्षण कह रहा क्या तुमने छुआ अभी ! मेरे प्रियवर ।। जैसे पुराने घड़े में नवीन जल भर दिया हो और वह पुनः सजीव हो उठे ऐसा ही कुछ है...  यह शरद !! नव तरंग - नव स्पंदन - नव सुगन्ध नव रसातुर पुष्पांकुर !! मद - रंग - रूप से सजे यें नव पुष्प भिन्न है इनमें एक वधुता सी है जैसे सौंदर्य आ गया हो ... और घूँघट अब भी ठहरा सा हो । सिया राम मिलन या रस-रास रमण महोत्सव शरद उतरी सुवासित मीरा सी । ग्रीष्म तलाशता रहा शीतलता भीतर - बाहर रुखा कुआँ सा। लौट आई शरद समीर भीतर बाहर उतरी ज्योत्स्ना सा । नीरस - जीवन हिय कुँजन में मधु रसित समीर का पंकज स्पर्श सा । सूखती डाल पर भी कोंपल फूट पड़ती है ... उतर देखा था कभी !! असर शरद के घुँघरुओं का... !!         - - युगल तृषित - -

सिद्धान्त बिन्दु - 1

एकहूँ और जैईं समुचो भव मण्डल ह्वै और एकहूँ और वें और भीतर नित मूक हियरागिनी की लज्जाईं ! हिय तैईं जीवन कै सबहिं प्रयास विफल करि दियौ जगत ! प्रेम कौ आखर कौ भी भावार्थ चाह्वै तौ कौन रीत प्रीत सुं होवै सहजहिं ललित कलरव ! बहुतहिं बहुत सँग भए जीवन माईं तबहिं जैईं सुवास फुलनि सहजहिं  बिहागिनी ! औरहिं ऐसी लड़ैती दुल्हन जैईं हिय सेज पै कि छिन-छिन सुभग सुहागिनी ! हिय तैईं धरयौ पग-पग कोईं हिय निहारें , इतहिं चक्रव्यूह भेदन भै हिय माँहिं बाजै भूषणहिं झाँझ - झनक सुं विलास मच्यौ रहवै जबहिं भै जैईं कथित भव कै सिर पै जू ना रेंगे जोईं भाल तैईं जीव - जीव जु कौ रेग्नो नाहिं टटोलहिं सकै तैईं हिय तै बिहरत श्रीललित पगनि सुं गजनी सजनी जू कंज वन मर्दन का विचारै , पुनि कहूँ प्रेम सारँग जबहिं बिहरै तौ उल्लास हुलास की मौज मदिराईं सुं शेष कोऊँ अर्थ नाहिं रहिं जावै । लोक कै रोगी सँग सहजहिं सारँग बिहार छिरकन अबहिं सहज दशा ह्वै गईं अलिन री , जैईं  प्रीत कै मार्ग तै प्रज्ञा - बुद्धि बलहिं चलत चलत हिय सर विलासिनी मीन कौ मदिर हुलास ... धावते मृगनी कौ लतावन की निजतान कौ विलास सुरभ आकुलित भृमर कौ लास ... सरसै झर...

श्यामल अनुसरण , युगल तृषित

श्यामल अनुसरण शून्य होने पर प्राप्त सघन सरस अनन्त उत्सव श्रीकृष्णालिंगन ... !  सबहिं रँग छाडहिं कृष्ण सँग रँगहिं   । कुछ भी कामना या इच्छाएँ मेरे भीतर शेष है , तो श्रीकृष्ण और उनका यह लीला-विलास पथ कितने ही प्रयासों से अस्पर्श ही है । यह स्पर्श चाहता है कि कोई अन्य विकल्प ना स्पर्श होवें । स्वयं को पुनः - पुनः भरने के लिये अनन्त साधन है परन्तु सघन शून्य  सरस शीतल होने का अवसर केवल निर्मल प्रेमालिंगन देता है । इसी प्रेमालिंगन को योग बोध या समाधि भी कहा जा सकता है परन्तु स्वयं की पूर्णाहुति जितनी समृद्ध होती है उतना ही दिव्यतम विकसित होता है यह रस का सरस स्पर्श । श्रीकृष्ण प्रीति चकोर को एक बार समस्त प्रकट - अप्रकट प्रकाश के प्रभाव से बनते रँग कल्प को निःसार मानकर हृदय के नयन मूँदने की गहन आवश्यकता रहती है और उस दशा में पुकार उठे ...हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । पुकार जब लालसामयी होकर जितनी सहज सरस निर्मल और मधुर होती जावेगी ...उस पुकार को श्रवण होगी , श्रीकृष्ण पुकार । निज हृदय में श्री वेणु के यह लीला-उत्सव सरसतम मुद्रांकनों में झूमा देगें । परन्तु अन्य क...

फूल हुआ , तृषित

*अभी अधुरी है यह ...* Do Not Share ख़्वाब जब ख़ुमार-ए-अब्र  हो उठा और निगाहेशौक़ हुआ  शर्मोसार चश्म ग़श नूरे नर्गिस  आज वो दिले गुल फूल हुआ अंदाज़े शब यें इश्क़ जब कभी बेवज़ह झरोखों से झाँकता अक़्स हुआ दिले इरादों में भरे ख़्यालों की बारिशों से बेपर्दा वो फ़ितूरे आह फूल हुआ जब न हुई ख़लिश हमें शरारती पैमानों से जज़्ब ख़बर सँग गुलबदन हुआ दर्दे ज़ीनत आज निग़ाह चिलमन से ज़िन्दग़ी का नक़्शे ज़िक्र फूल हुआ शबनमी एहसासों की शर्माई में नम ग़ज़ल पर न'ईम वो कुछ झूमा हुआ रूहे-महकी क़ुदरत के ख़ज़ाने से फिसल ख़्वाबे जश्न तबस्सुम फूल हुआ कुछ तो है मुझमें नौ यार फ़िदाई का अज़नबी पाकीज़ा ईरादा बख़्त हुआ बूँद-बूँद की वो आस तृषित , कब यूँ नादिम फ़िज़ाओं की नफ़्स अल-अब्द ज़र्ब-गोशा फूल हुआ टपकती रेशमी हवाओं का रूहे-रँग भीगे महकते सिहरते दिल को छुआ ... हया सरका , प्यार झलका , छुपे ख़्वाब का दीदारे नशां आज फूल हुआ  अत्फ़े अदा के सागर पर नौबहार बदन छू कर जो रँग ए चिराग़ जो हुआ हुआ जो हुआ फिर भी जिसे कुछ ना हुआ वही चश्म-गाह आज फूल हुआ *युगल तृषित* क्रमशः ... ...  ख़ुमार = नशा ,  अब्र = बादल ,  निगाहेशौक़ = सज्ज...

पावस सिद्धान्त , तृषित

*पावस सिद्धान्त* जै रस बढ्यौ मधुर री मदिर सुवास भरि भरि घन सँग पीव  सरस झरि झरि ज्यूँ वल्लरी हरित वलित रँग रँगी बूँदनि जीव *** सरकै सरकै बूँदनि तै होईं घन झारिन भर झर  मचलै मचलै लास रस तै हुलस विलस सर तर *** पीवै कौ प्यास हमहिं की पिलावै कौ प्यास पावस री  सबहिं तृषित वन चर मदिर बरसौ चौ मासो पावस री  *** झरै रस पावस सँग जैईं कौन प्यासो ना जान्यौ  पिलावै जौ रस भरि भरि तै पावस निधि मान्यौ *** घन आतुर बिहरनि , निज प्राणनि दरस मिलै झरै झरै घन-घन , वन-वन और हरे- हरे प्राणनि भरै  ***  दरस पियासौ घन दामिनी लुक छिप जावै आवै  रस कौ गीत रँगनि कौ नाच निरखै प्राण पावै भावै ***  आई आई बूँदनि , सहमै खग फूल अरजै मेह और ही और झारो वन दृग सर कूप सबहिं रिक्त रस दैईं दैईं हित सहज विचारो  *** ना ही गरजौ , सरकै सरकै अबहिं कहाँ कौ चले घन प्रान  सुनि अरज और अरजौ , बरसौ बरसौ पात पात जीवन दान  ***  बिहार फुहारिन कौ अति सरसावै  ,ऊष्ण झारै सरस नखरालौ सबहिं भीष्ण दाहै धरा अकुलावै , घन ह्वै सरस सुख निरालौ *** हुलासनि कौ सहज हुलास , विलासनि कौ सरस ...

भाषा कौतुक , तृषित

भाषा कौतुक *श्री हरिवंश जी*  भगवन मुझे ब्रज भाषा व निकुंजो के शब्द के अर्थ का सही ज्ञान नही है समझ कम आते है। जिससे पूरा लाभ नही मिल पाता। आप कहेंगे कि वणिया गाते सुनते रहिए अपने आप वाणियो के शब्द समझ मे आ जाएंगे लेकिन फिर भी दिक्कत आ रही है ब्रज भाषा समझने में।  आपके लिए तो सहजता है लेकिन हम शुरुआत में ही है अभी यह वाणिया सुनना चालू किए है तो दूसरा क्या उपाय करें क्या कोई ब्रज भाषा सीखने हेतु डिक्शनरी है या कुछ उपाय हो तो बताइए। पक्के होना चाहते है ब्रज भाषा मे ......??? उत्तर -- अनुभव की अपनी भाषा है , वह सहजतम सहज है और वहीं अनुभव तनिक अभिव्यक्त होकर भाषा हो रहा होता है । समझने के लिए उदाहरण है कि एक तो सहज मोर का नृत्य और एक उस नृत्य की नकल से भरा नृत्य । दोनों में अभिव्यक्ति रूपी कला कितनी ही प्रखर होंवें परन्तु शत प्रतिशत मयूर विलास का आन्दोलन नहीं हो सकेगा ।  अभी ही एक आंतरिक संवाद में मुझे उत्तर मिला कि वर्तमान में प्राप्त संस्कृतियाँ भी अब अपभ्रंश ही है , वैसे जगत भोगवाद के लिए जातियों को नहीं मानता परन्तु जातियाँ सभी तत्वों की होती है कला और भाषाओं की भी । यह बा...

ललित अर्थात् , तृषित

*ललित अर्थात्* मधुरतम परस्पर प्रेमासक्त सम्पूर्णताएँ जब और नवीन उत्साह-उत्सव-उन्माद प्राप्त करती है तो वह "ललित" है । ... यह मधुर प्रेमोत्सव की बीज और परिणाम माधुरी है । सामान्य जीवन "ललित" इसलिये नहीं समझ सकते क्योंकि वह मृत्यु के पथिक है और "ललित" नित्य नवीनता का प्रस्फुटन-विस्तरण- गहनोत्तर गहन उन्माद विलास ।  ललित अर्थात् और सुभग ...और सुन्दर ...और मधुर ...और कोमल ...और निर्मल ...और शीतल ...और प्रकम्पन भरित मधुरतम लीला-उत्सव । कोई जीवन जब भी सहजतम ललित स्पर्श या सँग पाकर उत्सवित हुआ होगा तो वह और नवीन श्रृंगार उपचारों सँग जिस धरा पर टपक रहा होगा वह सुरभिनि भावधरा "लीला" है ...सो जीवन उत्सव मात्र "ललित" नहीं होता , नित सुमधुर प्राण का निजतम कोमल लज्जित प्राण में विलसन अर्थात् लीला उत्सव ही "ललित" है । लीला अर्थात् नित प्रेम कौतुक का सहजतम उल्लास ... ...रसिला प्रवाह ...लास्यमयी ललित - पुलकन -प्रफुल्लन । उमड़ते रससुधा चेतनाओं का विलास अगर बिन्दु चेतन जो कि शुष्क भी हो रहा हो समझ सकें तो वह समझ रहा है ...लीला ।  रस का और सघन मधु...

समर (प्रपञ्च और मधु) , तृषित

*समर (प्रपञ्च और मधु)* इष्ट शून्य मण्डल को सादर नमन ।।।               वर्तमान जीव दशा ऐसे रोगों में लिप्त है कि उन्हें इन रोगों से छूटना ही नहीं है ।  अनन्त बद्ध और प्रपञ्च चिंतन में घर्षित चेतनाएँ क्षणार्द्ध उज्ज्वल मधुर चिंतन का सँग विशुद्ध लालसा से नहीं कर पा रही ।  प्रपञ्च के गुण और दोष में भीगी असक्तियाँ , किन्हीं मधुर मण्डलों का रँग और सँग वहन ही नहीं कर पा रही ।  फिर इन विकृत भोग दशाओं में बद्ध जीव-जीव को परस्पर धर्मात्मा या महात्मा भी दिखना है अर्थात् सेवा भक्ति दोषों की और वस्त्र अलंकार गुणों के । यह दर्शन लालसा कहीं न कहीं सत्य की लालसा को अनिवार्य प्रकट करती है । जीव मात्र नमित भलें ना हो पा रहा हो , परन्तु अपने प्रति नमस्कार का सृजन कर ही रहा होता है और नमः तत्व का सम्बन्ध प्रकट करता है , श्रीपुरुषोत्तम (इष्ट) की आवश्यकता ।  वास्तविक धर्म या रस पथिक को यह आत्म-प्रदर्शन तत्व ही समझ नहीं आता है । वह अपनी मौज और उल्लास में निहित जीवन है परन्तु भुक्त रोगियों को यह उल्लास ही प्रपञ्च सदृश्य अनुभव हो सकता है ।  लालसा ...

लीला दर्शन , तृषित

मैं लीला दर्शन उसे मानता हूं जब आप स्वयं को समेट लें , छिपा लें परन्तु वह ललित सरस लीला रूपी वर्षा घुमड़ती ही रहें । आप भीतर भी  नयन मूंद लें और सहज ब्यार से खुलें पर्दे की तरह अन्तस् देखता रहें । आप गलित हो और वह ललित हो । आप नमित हो और वह वर्षित हो । आपने स्वयं को इतनी मधुता से छिपाया हो और वह आपकी गोद से उतर ना रही हो । ज्यों माँ नहीं चाहती कि उसका शिशु ना रोवें त्यों सहजतम दशा नहीं चाहती कि लीला पुहुप ( फूल ) झरें  ... पर वह झरे और आप रोक ना सको । जब कोई स्वयं को प्रकट करें और किसी बलात् धक्का लगा कर प्रकट कर दिया जावें दोनों दशाओं में बहुत भेद होगा । युगल तृषित ।  कथित मनुष्यों को छोड़िये गिलहरी और तितलियों से पूछियेगा लीला में कैसे रहा जाता है ।

नवबाल पुहुपोत्सव वृन्द रेणु रेणु

*नवबाल पुहुपोत्सव वृन्द रेणु रेणु* https://youtu.be/XQT6n6vbyI0 आपने सम्भवतः यह पूर्ण भाव सुना ना हो , तनिक मनन कीजिये ।  *कलि कलि आ गई है स्वरूपों पर उत्सवों का और प्रबल होता उन्माद । मिलती यह दो लताएं अब यूँ मिलेंगी ...हाँ री इनके पुहुप उलझेंगे । कलि के हृदय में उठा विलास का बिहाग उसे उत्सवित और पुलकित करता हुआ खिलता जावेगा और वह नवबाल पुहुपाती सी हो उठेंगी ... फूल ...और और उन्मादित पुष्प । तब भी वह रोमावलियों का डोल उत्सव कहाँ थमेगा , तुम इस पुहुपाईं की लज्जा अपने में भर पलकों की बौरनियों से बस हिय में भरो तो जब निहारोगी पाओगी और खिल उठा यह प्रेम पुहुप । पुष्प अभी उत्सव मनाना सीखा ही तो है और बढ़ रही उसकी पँखुड़ी-पँखुड़ी और आती हुई मधुभोगी अलियों से लजाकर उन्हें कहता यह पुहुप कि अभी नहीं अलि री और पुलकनें भीतर आ रही है ...मधुपान हेत ठहरो ना   शीघ्रता कहाँ है ...और इन पुलकनों से लहराते सुरभता के घन से विवश हुए आएं भँवर । ... ना करिये ना यह भृंगन अभी सुगन्धें धीमे धीमे बस टपकना ही चाहती ब्यार में । हिय रोग को थामे व्यसनी भृमर कैसे सँग करें कि ना करें बस उसका वर्द्धित नलिन र...

कौन खेलें प्रेम - तृषित

*कौन खेलें प्रेम* प्रेम को कहा या बताया या अभिव्यक्त क्यों नहीं किया जा सकता क्योंकि वह जहाँ जैसा बताया जा चुका होगा वहाँ से उड़ सकता है । जैसे कहुँ कि प्रेम में आलस्य है , वह काल मर्यादित नही रह सकता तो प्रेम में ही तो प्रतिक्षा और प्रेम में ही अतिव व्यग्रता भी है । प्रेमी-साधकों को प्रेम के गोपन रसों को रसिकों के जीवन या सिद्धांतों से चुराना आना चाहिये । क्योंकि वह प्रकट किए जाते है तब तक प्रेम विपरीत धर्म अपना ही लेता है क्योंकि प्रेम तो जानकर पहना हुआ आभूषण नहीं है । इधर चलो प्रेम मिलेगा ऐसा कहा ही नहीं जा सकता क्योंकि सम्भव है वह किसी सोये हुए को भी मिल गया हो , परन्तु प्रेम को संक्रमण या चोरी से पाया जा सकता है लेकिन प्रेम के पाठ को याद कर नहीं प्राप्त हो सकता , कहा जावें इन्हें देखो , पूर्व में जिन्होंने देखा उनकी यह प्रेम दशा हुई है तो वहाँ वह दर्शन भीतर से खुलें नहीं होने से बरसने पर भी भरते नहीं भरेंगे । अगर पात्र रिक्त और प्यासा हो तो वह प्रेम की बिन्दु - बिन्दु खोज-खोज कर झुम-झुम लहराना चाहता है । परन्तु प्रायः हृदय गत रिक्तता और नवेली तृषा यह दोनों ही लुप्त लताएं हो चुकी हो...

कौन खेलें प्रेम , तृषित

*कौन खेलें प्रेम* प्रेम को कहा या बताया या अभिव्यक्त क्यों नहीं किया जा सकता क्योंकि वह जहाँ जैसा बताया जा चुका होगा वहाँ से उड़ सकता है । जैसे कहुँ कि प्रेम में आलस्य है , वह काल मर्यादित नही रह सकता तो प्रेम में ही तो प्रतिक्षा और प्रेम में ही अतिव व्यग्रता भी है । प्रेमी-साधकों को प्रेम के गोपन रसों को रसिकों के जीवन या सिद्धांतों से चुराना आना चाहिये । क्योंकि वह प्रकट किए जाते है तब तक प्रेम विपरीत धर्म अपना ही लेता है क्योंकि प्रेम तो जानकर पहना हुआ आभूषण नहीं है । इधर चलो प्रेम मिलेगा ऐसा कहा ही नहीं जा सकता क्योंकि सम्भव है वह किसी सोये हुए को भी मिल गया हो , परन्तु प्रेम को संक्रमण या चोरी से पाया जा सकता है लेकिन प्रेम के पाठ को याद कर नहीं प्राप्त हो सकता , कहा जावें इन्हें देखो , पूर्व में जिन्होंने देखा उनकी यह प्रेम दशा हुई है तो वहाँ वह दर्शन भीतर से खुलें नहीं होने से बरसने पर भी भरते नहीं भरेंगे । अगर पात्र रिक्त और प्यासा हो तो वह प्रेम की बिन्दु - बिन्दु खोज-खोज कर झुम-झुम लहराना चाहता है । परन्तु प्रायः हृदय गत रिक्तता और नवेली तृषा यह दोनों ही लुप्त लताएं हो चुकी हो...

वेणी श्रृंगार , श्रीक जू ।

Please Do Not Share आजु ... आज नवेली श्रीप्रिया किस भावना में तल्लीन ...  ग्रीवा झूकि सी ...  विशाल नयन सरोवर अर्द्धमुँदी ... रसिकनी की रस भरी लोचन में अथाह उमंग ... सुरत विलास की थकित श्रमित चिह्न गौरांगी को रसिक रस रँगीली  कर तनिक लज्जा की पटाभरण ओढ़ा दी है । अपलक नेत्र से अपने ही सुदीर्घ वेणी को निहार रही ... स्निग्ध चिक्कन ... सखी की कसी हुई गूँथन अब शिथिल ... कुछ लट उरझ गये है झूमका की बूंदी में ...  वह निहारती रही वेणी की ओर ...  और सघन श्यामल होती गयी वेणी... प्राण वल्लभ प्रतीत हो रहे थे और उनकी मानने से .. निकट बैठे हुये भीगी पर्यंक पर रसिक प्रियतम पुलकित हो उठे.... उन्हें और एक अवसर ...एक सादर निमंत्रण मिला ... ... ... उनके आतुर नयन वेणी जू के मूल से परिक्रमा करते रुक गए अपने प्राण पोषिनी के झूमती झूमका के पास... श्रीप्रिया के कर्ण जो भी रसासव पिये  ... अपने रस नागर के नामामृत ... गूंजने लगा ... और यह शीतल झोंका से ठिठुरने लगे... बिहारी जू ...ललितनागर जू ।  घूमती हुई वेणी रस वर्षिणी के अधर दल स्पर्श कर.. आह री ... अब तो बाँवरे प्यारे अधर रस सु...

भाव यात्राएँ , तृषित

भाव साधना देह के अध्यास से छूटने पर उत्सवित होती है और यही साधनाएं स्वयं ही आवरण भँग लीलाएँ भी रचित कर कल्पित परिधियों को अपरिमित रस भावना में भीगो देती है ।  जितनी भी स्त्री देह की रस साधक है इनके स्वभाव जब प्रकट होगें उसमें प्रियतम के आवेश बढेंगे । और दशा सखी है तब भी प्रियतम सुख के स्वभाव बढेंगे परन्तु वह यह प्रकट नहीं कर सकती क्योंकि अति मनहर दशाओं को इस देह से कहीं प्रकट में नहीं खेला जा सकता है ।  एक बार प्रियतम आवेश सघन बढ़कर पुनः नायिका (स्त्रैण रँग रस) लौट सकते है । यह विवर्त चलता ही रहता है । अगर स्त्री देह की साधिका मौन भी हो गई है तब भी उसके भीतर श्री प्रियतम के सुख या मुद्रा आदि स्फुरित होते रह्वेगे ।  दैहिक सौभाग्य से श्री प्रिया का सँग सरल लग सकता है परन्तु श्रीप्रियतम का यह रस संक्रमण मण्डल क्षेत्र पार करने पर ही श्री ललित प्रिया का प्रभा मण्डल सुरभित रहेगा ।  अर्थात् अगर आप सहज है तो दशाएँ परावर्तित होती रहेगी । आपके जिनके सन्मुख हो उनकी ही प्रतिबिम्ब हो । विशुद्ध हरिदासी में श्रीयुगल का संयोग रस नित्य ही बिम्बित होता है । अर्थात् वहाँ जुगल सरकार की ह...

शंकराभरण - बिलावल - तृषित

। बिलावल । सागर के तट पर कीच का उछलना भी बिलावल होगा ।।  अर्थात् परिमलित फुहार का गलित स्पर्श ।  नदी के गीले तट को जो अनुभव नाग के चलने का होता हो । या किसी नायिका को यह लिपटे हो और वह गतिमया हो । यह आभरण है  , गौरी की सुराताई में प्राप्त श्रृंगारों का रँगन ।  श्रीललित प्रियामाधव को यह अनुभव फूल श्रृंगारों में भी रहते है ज्यों शंकराभरण धारित हो । और श्री गौरी सँग विलास में श्री केदार को उनके पुष्प श्रृंगार का गलित स्पंदन होना उनकी बिलावल है ।  अर्थात् बिलावल के दो रूप है एक में वह सरोवर की तरँग हो किनारे तक आ रही है तो दूसरे रस में वह परस्पर उत्सवित श्रृंगारों का रँगन है । ज्यों श्रीप्रिया पर श्रीप्रियतम के अलंकार (यह अलंकार केवल दृश्य आभूषण भर नहीं होते , यह प्रेमास्पद आवेशों में भरित दशा होती ) श्री केदार विलास में गौरीशिव परिरम्भन में प्राप्त शिव अलंकार श्रीगौरी को फूल वत ही अनुभव होते बस वह कुछ फिसल या गतिमय होते जैसे कि वह सचेतन मालिकाएँ हो । यह बिलावल का एक झँकन है । शेष कभी ।  अब भी इसका चिंतन ना बनें तो अपना नाग शैया पर विश्राम का संकल्प कीजिये । वि...

श्रीराधिकायाः प्रेमपूराभिधस्तोत्रम्

*श्रीराधिकायाः प्रेमपूराभिधस्तोत्रम्* मधुमधुरनिशायां ज्योतिरुद्भासितायां      सितकुसुमसुवासाः कॢप्तकर्पूरभूषा । सुबलसखमुपेता दूतिकान्यस्तहस्ता      क्षणमपि मम राधे नेत्रमानन्दय त्वम् ॥ १॥ स्मरगृहमविशन्ती वाम्यतो धाम गन्तुं      सरणिमनुसरन्ती तेन संरुद्ध्य तूर्णम् । बलसवलितकाक्वा लम्भितान्तःस्मिताक्षी      क्षणमपि मम राधे नेत्रमानन्दय त्वम् ॥ २॥ मुदिररुचिरवक्षस्युन्नते माधवस्य      स्थिरचरवरविद्युद्वल्लिवन्मल्लितल्पे । ललितकनकयूथीमालिकावच्च भान्ती      क्षणमपि मम राधे नेत्रमानन्दय त्वम् ॥ ३॥ स्मरविलसिततल्पे जल्पलीलामनल्पां      क्रमकृतिपरिहीनां बिभ्रती तेन सार्धम् । मिथ इव परिरम्भारम्भवृत्त्येकवर्ष्मा      क्षणमपि मम राधे नेत्रमानन्दय त्वम् ॥ ४॥ प्रमदमदनयुद्धश्रान्तितः कान्तकृष्ण      प्रचुरसुखदवक्षःस्फारतल्पे स्वपन्ती । रसमुदितविशाखाजीविताब्धौ समृद्धा      क्षणमपि मम राधे नेत्रमानन्दय त्वम् ॥ ५॥ अपि बत सुरतान्ते प्रौढिसौभाग्यदृप्य-   ...

राधाष्टकम्

राधाष्टकम्  नमस्ते श्रियै राधिकायै परायै      नमस्ते नमस्ते मुकुन्दप्रियायै । सदानन्दरूपे प्रसीद त्वमन्तः-      प्रकाशे स्फुरन्ती मुकुन्देन सार्धम् ॥ १॥ स्ववासोपहारं यशोदासुतं वा      स्वदध्यादिचौरं समाराधयन्तीम् । स्वदाम्नोदरे या बबन्धाशु नीव्या      प्रपद्ये नु दामोदरप्रेयसीं ताम् ॥ २॥ दुराराध्यमाराध्य कृष्णं वशे तं      महाप्रेमपूरेण राधाभिधाभूः । स्वयं नामकीर्त्या हरौ प्रेम यच्छत्      प्रपन्नाय मे कृष्णरूपे समक्षम् ॥ ३॥ मुकुन्दस्त्वया प्रेमडोरेण बद्धः      पतङ्गो यथा त्वामनुभ्राम्यमाणः । उपक्रीडयन् हार्दमेवानुगच्छन्      कृपावर्तते कारयातो मयीष्टिम् ॥ ४॥ व्रजन्तीं स्ववृन्दावने नित्यकालं      मुकुन्देन साकं विधायाङ्कमालाम् । समामोक्ष्यमाणानुकम्पाकटाक्षैः      श्रियं चिन्तये सच्चिदानन्दरूपाम् ॥ ५॥ मुकुन्दानुरागेण रोमाञ्चिताङ्गै-      रहं वेप्यमानां तनुस्वेदबिन्दुम् । महाहार्दवृष्ट्या कृपापाङ्गदृष्ट्या     ...

श्रीयमुनाष्टकम्

श्रीयमुनाष्टकम्  भ्रातुरन्तकस्य पत्तनेऽभिपत्तिहारिणी      प्रेक्षयातिपापिनोऽपि पापसिन्धुतारिणी । नीरमाधुरीभिरप्यशेषचित्तबन्धिनी      मां पुनातु सर्वदारविन्दबन्धुनन्दिनी ॥ १॥ हारिवारिधारयाभिमण्डितोरुखाण्डवा      पुण्डरीकमण्डलोद्यदण्डजालिताण्डवा । स्नानकामपामरोग्रपापसम्पदन्धिनी      मां पुनातु सर्वदारविन्दबन्धुनन्दिनी ॥ २॥ शीकराभिमृष्टजन्तुदुर्विपाकमर्दिनी      नन्दनन्दनान्तरङ्गभक्तिपूरवर्धिनी । तीरसङ्गमाभिलाषिमङ्गलानुबन्धिनी      मां पुनातु सर्वदारविन्दबन्धुनन्दिनी ॥ ३॥ द्वीपचक्रवालजुष्टसप्तसिन्धुभेदिनी      श्रीमुकुन्दनिर्मितोरुदिव्यकेलिवेदिनी । कान्तिकन्दलीभिरिन्द्रनीलवृन्दनिन्दिनी      मां पुनातु सर्वदारविन्दबन्धुनन्दिनी ॥ ४॥ माथुरेण मण्डलेन चारुणाभिमण्डिता      प्रेमनद्धवैष्णवाध्ववर्धनाय पण्डिता । ऊर्मिदोर्विलासपद्मनाभपादवन्दिनी      मां पुनातु सर्वदारविन्दबन्धुनन्दिनी ॥ ५॥ रम्यतीररम्भमाणगोकदम्बभूषिता      दिव्यगन्धभ...

श्रीयुगलकिशोराष्टकम्

श्रीयुगलकिशोराष्टकम्  श्रीमद्रूपगोस्वामिविरचितम् । नवजलधरविद्युद्योतवर्णौ प्रसन्नौ वदननयनपद्मौ चारुचन्द्रावतंसौ । अलकतिलकफालौ केशवेशप्रफुल्लौ भज भज तु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ १॥ वसनहरितनीलौ चन्दनालेपनाङ्गौ मणिमरकतदीप्तौ स्वर्णमालाप्रयुक्तौ । कनकवलयहस्तौ रासनाट्यप्रसक्तौ भज भज तु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ २॥ अतिमतिहरवेशौ रङ्गभङ्गीत्रिभङ्गौ मधुरमृदुलहास्यौ कुण्डलाकीर्णकर्णौ । नटवरवररम्यौ नृत्यगीतानुरक्तौ भज भज तु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ ३॥ विविधगुणविदग्धौ वन्दनीयौ सुवेशौ मणिमयमकराद्यैः शोभिताङ्गौ स्फुरन्तौ । स्मितनमितकटाक्षौ धर्मकर्मप्रदत्तौ भज भज तु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ ४॥ कनकमुकुटचूडौ पुष्पितोद्भूषिताङ्गौ सकलवननिविष्टौ सुन्दरानन्दपुञ्जौ । चरणकमलदिव्यौ देवदेवादिसेव्यौ भज भज तु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ ५॥ अतिसुवलितगात्रौ गन्धमाल्यैर्विराजौ कति कति रमणीनां सेव्यमानौ सुवेशौ । मुनिसुरगणभाव्यौ वेदशास्त्रादिविज्ञौ भज भज तु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ ६॥ अतिसुमधुरमूर्तौ दुष्टदर्पप्रशान्तौ सुखरसवरदौ द्वौ सर्वसिद्धिप्रदानौ । अतिरसवशमग्नौ गीतवाद्यैर्वितानौ भज भज तु मनो रे ...

श्रीयुगलाष्टकम्

श्रीयुगलाष्टकम्  श्रीमाधवेन्द्रपुरीविरचितं । वृन्दावनविहाराढ्यौ सच्चिदानन्दविग्रहौ । मणिमण्डपमध्यस्थौ राधाकृष्णौ नमाम्यहम् ॥ १॥ पीतनीलपटौ शान्तौ श्यामगौरकलेबरौ । सदा रासरतौ सत्यौ राधाकृष्णौ नमाम्यहम् ॥ २॥ भावाविष्टौ सदा रम्यौ रासचातुर्यपण्डितौ । मुरलीगानतत्त्वज्ञौ राधाकृष्णौ नमाम्यहम् ॥ ३॥ यमुनोपवनावासौ कदम्बवनमन्दिरौ । कल्पद्रुमवनाधीशौ राधाकृष्णौ नमाम्यहम् ॥ ४॥ यमुनास्नानसुभगौ गोवर्धनविलासिनौ । दिव्यमन्दारमालाढ्यौ राधाकृष्णौ नमाम्यहम् ॥ ५॥ मञ्जीररञ्जितपदौ नासाग्रगजमौक्तिकौ । मधुरस्मेरसुमुखौ राधाकृष्णौ नमाम्यहम् ॥ ६॥ अनन्तकोटिब्रह्माण्डे सृष्टिस्थित्यन्तकारिणौ । मोहनौ सर्वलोकानां राधाकृष्णौ नमाम्यहम् ॥ ७॥ परस्परसमाविष्टौ परस्परगणप्रियौ । रससागरसम्पन्नौ राधाकृष्णौ नमाम्यहम् ॥ ८॥ इति श्रीमाधवेन्द्रपुरीविरचितं श्रीयुगलाष्टकं सम्पूर्णम् ।

श्रीललितोक्ततोटकाष्टकं

नयनेरितमानसभूविशिखः      शिरसि प्रचलप्रचलाकशिखः । मुरलीध्वनिभिः सुरभीस्त्वरयन्      पशुपीविरहव्यसनं तिरयन् ॥ १॥ परितो जननीपरितोषकरः      सखि लम्पटयन्नखिलं भुवनम् । तरुणीहृदयं करुणी विदधत्      तरलं सरले करलम्बिगुणः ॥ २॥ दिवसोपरमे परमोल्लसितः      कलशस्तनि हे विलसद्धसितः । अतसीकुसुमं विहसन्महसा      हरिणीकुलमाकुलयन् सहसा ॥ ३॥ प्रणयिप्रवणः सुभगश्रवण      प्रचलन्मकरः ससखिप्रकरः । मदयन्नमरीर्भ्रमयन् भ्रमरी      मिलितः कतिभिः शिखिनां तातभिः ॥ ४॥ अयमुज्ज्वलयन् व्रजभूसरणीं      रमयन् क्रमणैर्मृदुभिर्धरणीम् । अजिरे मिलितः कलितप्रमदे      हरिरुद्विजसे तदपि प्रमदे ॥ ५॥ वद मा परुषं हृदये न रुषं      रचय त्वमतश्चल विभ्रमतः । उदिते मिहिकाकिरणे न हि का      रभसादयि तं भजते दयितम् ॥ ६॥ कलय त्वरया विलसत्सिचयः      प्रसरत्यभितो युवतीनिचयः । निदधाति हरिर्नयनं सरणौ      तव विक्षिप सप्रणयं चरणौ ॥ ७॥ ...

सुरतकथामृतं

सुरतकथामृतं  मूलग्रन्थस्य केन्द्रीयश्लोकः- कदाहं सेविष्ये व्रततिचमरीचामरमरु-      द्विनोदेन क्रीडा कुसुमशयने न्यस्तवपुषौ । दरोन्मीलन्नेत्रौ श्रमजलकणक्लिद्यदलकौ      ब्रुवाणावन्योन्यं व्रजनवयुवानाविह युवाम् ॥ उत्कलिकावल्लरी ५२ श्रीकृष्ण उवाच- चित्रमिदं नहि यदहो वितरस्यधरसुधां निकामं मे । अति कृपणोऽपि कदाचिद्वदान्यतमतां जनः प्रिये धत्ते ॥ १॥ लयमपि न याति दाने प्रत्युत ऋद्धिं रसाधिकां लभते । अधरसुधोत्तमविद्यां विबुधवरायाद्य मे देहि ॥ २॥ स्वान्ते बिभ्रति भवतीं स्वान्ते वासिन्यतिस्निग्धे । मयि किमपूर्वां नादास्त्वमिमां च यस्माद्विदुष्यहो तत्र ॥ ३॥ श्रीराधाह- कुलरमणीततिलज्जानिर्मूलनतन्त्रकौशलोद्गारैः । प्रथयसि किमु निजगर्वं ज्ञातं पाण्डित्यमस्ति ते तत्र ॥ ४॥ दैवाद्विपक्षतामपि मयि यान्त्या बत ममैव सहचर्या । न्यस्ताहं तव हस्ते कथमत्र गर्वो भवेन् न ते ॥ ५॥ अयमपि परमो धर्मः श्लाघा महती तवेयमेवेष्टा । यौवनफलमपि चेदं कुलाबलापीडनं यदहो ॥ ६॥ श्रीकृष्ण आह- स्मरनरपतिवरराज्ये धर्मः शर्मप्रदोऽयमादिष्टः । वत्स्यायनमुनिनिर्मितपद्धत्युक्तानुसारेण हि ॥ ७॥ अपि च- अत्र प्रमाण...

श्रीहरिकुसुमस्तवः

*श्रीहरिकुसुमस्तवः*  गतिगञ्जितमत्ततरद्विरदं      रदनिन्दितसुन्दरकुन्दमदम् । मदनार्बुदरूपमदघ्नरुचिं      रुचिरस्मितमञ्जरि मञ्जुमुखम् ॥ १॥ मुखरीकृतवेणुहृतप्रमदं      मदवल्गितलोचनतामरसम् । रसपूरविकासककेलिपरं      परमार्थपरायणलोकगतिम् ॥ २॥ गतिमण्डितयामुनतीरभुवं      भुवनेश्वरवन्दितचारुपदम् । पदकोज्ज्वलकोमलकण्ठरुचं      रुचकात्तविशेषकवल्गुतरम् ॥ ३॥ तरलप्रचलाकपरीतशिखं      शिखरीन्द्रधृति प्रतिपन्नभुजम् । भुजगेन्द्रफणाङ्गणरङ्गधरं      धरकन्दरखेलनलुब्धहृदम् ॥ ४॥ हृदयालुसुहृद्गणदत्तमहं      महनीयकथाकुलधूतकलिम् । कलिताखिलदुर्जयबाहुबलं      बलवल्लवशावकसन्निहितम् ॥ ५॥ हितसाधुसमीहितकल्पतरुं      तरुणीगणनूतनपुष्पशरम् । शरणागतरक्षणदक्षतमं      तमसाधुकुलोपलचण्डकरम् ॥ ६॥ करपद्ममिलत्कुसुमस्तवकं      बकदानवमत्तकरीन्द्रहरिम् । हरिणीगणहारकवेणुकलं      कलकण्ठरवोज्ज्वलकण्ठरणम् ॥ ७॥ रणखण्डितदुर्जनपु...

श्रीललिताप्रणामस्तोत्रम्

*श्रीललिताप्रणामस्तोत्रम्* श्रीललिताय नमः । राधामुकुन्द पदसम्भवघर्मबिन्दु      निर्मञ्छनोपकरणीकृत देहलक्षाम् । उत्तुङ्गसौहृदविशेषवशात् प्रगल्भां      देवीं गुणैः सुललितां ललितां नमामि ॥ १॥ राकासुधाकिरणमण्डलकान्तिदण्डि      वक्त्रश्रियं चकितचारू चमूरुनेत्राम् । राधाप्रसाधनविधानकलाप्रसिद्धां      देवीं गुणैः सुललितां ललितां नमामि ॥ २॥ लास्योल्लसद्भुजगशत्रुपतत्रचित्र      पट्टांशुकाभरणकञ्चुलिकाञ्चिताङ्गीम् । गोरोचनारुचिविगर्हण गौरिमाणं      देवीं गुणैः सुललितां ललितां नमामि ॥ ३॥ धूर्ते व्रजेन्द्रतनये तनु सुष्ठुवाम्यं      मा दक्षिणा भाव कलङ्किनि लाघवाय । राधे गिरं श‍ृणु हितामिति शिक्षयन्तीं      देवीं गुणैः सुललितां ललितां नमामि ॥ ४॥ राधामभिव्रजपतेः कृतमात्मजेन      कूटं मनागपि विलोक्य विलोहिताक्षीम् । वाग्भङ्गिभिस्तमचिरेण विलज्जयन्तीं      देवीं गुणैः सुललितां ललितां नमामि ॥ ५॥ वात्सल्यवृन्दवसतिं पशुपालराज्ञ्याः      सख्यानुशि...

फैशन या ललित दर्शन । तृषित

बाहरी भक्ति मार्ग के पथिक बहुत ही उथले में ही रहकर इनके प्रेम पर अपना कथित प्रेम लादकर प्रसन्न है ।  उन्हें सहजता और वास्तविक सौन्दर्यता की गति से अधिक महत्व भीतर की पश्चिमी लहरों का अनुसरण ।  पश्चिमी लहरों को निज रस में डुबोने के स्वप्न ने आज भगवदीय स्वरूप स्वभावों में पश्चिम विकृत संस्कृतियों का बहुत प्रभाव बना डाला है कि अब सरसता या सहजता तक कोई लोलुप्त ही आ सकेंगे । शेष को छबियो में श्रीहरि ललित सरकार के सुभग कोमल घुँघराले केशराशि का नया फैशन ही लुभा रहा होगा । और विषयी चित्त पर बहुत ही सहजता से यह पश्चिमी रँग बनेंगे । कहीं कहीं तो अपने भीतर आधुनिकता मिश्रित भक्ति इतनी प्रबल रहेंगी कि रस रीतियों के प्रमाण और अनुभव भी इन पथिकों को सरसता की ओर द्रवित करें तो श्रीहरिकृपा ही । रसिक रीतियों के मीन और पद्म के त्रिभंग सौंदर्य को भँग करते विशाल नयन सरोवरों की अपेक्षा प्रचलित इन छबियो के नयनों में सामान्य मानवीय नयनों सी क्षुब्ध दृष्टि भी है तो कारण कि इन पथिकों ने स्वीकार कर लिया कि कोई भी लौकिक चित्रकार रच सकेंगे मधुर ललित प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर बस वह अपनी रचित कल्पना को मयूर पँ...

टपकती पुहुपाई । युगल तृषित

टपकती पुहुपाई  भाव एक पुहुप (फूल) है । जिसे कई फूलों (भावों) सँग मिलकर कुँज सजानी है क्योंकि कुँज एक फूल से नहीं । बहुत से फूलों अर्थात् भावों के समूह से बनी होती है । जिनका भाव सिद्ध हो गया है वह भीतर से फूल से रह गए है और फूलों के महल में , फूलों  को पहनकर , फूलों की सेज पर जो दो फूल ... कोमल फूलों का सुख सजा रहे हो वह मधु पीने वाली अलियाँ इन शीतल फूलों के चिंतन से यूँ कम्पित रह जाती जैसे बिना पीवें ही रसना पर फैन-मैन हिमराग या पयोहिम होकर शीतल शर्बत टपक रहा हो । शीतल पेय शीतकाल में पीने पर जो दशा बनती वह ही दशा और शीतल होकर श्रीयुगल सँग कर सकती । साधक दशाओं को मेरा सदा निवेदन रहा है कि ग्रीष्म में ग्रीष्म को झेलें और शीतकाल में शीतलता को बढ़ाकर पीवें । तब ही वह शीतलता ऊष्ण ऋतु में कम्पित करेंगी । और जो सहज सेविका है वह ऊष्ण ऋतुओं में शीतल सुख सहजता से दे पावेगी , अपना पृथक् राग नहीं रोवेगी क्योंकि सुख देने के चिंतन से अतिव शीतलता में तनिक ऊष्ण उत्सव और ऊष्ण वेला में तनिक शीतल उत्सव और आगे जल केलि या नौका विहार भी भीतर सहज उत्सवित होगा । देह हो या कोई इन्द्रिय उसका सँग हो केव...

अमैत्री और प्रेम दशाएँ , तृषित

जीवन में कोई भी सँग आई भावना का उपहास या अनादर नहीं बस सहज प्रणाम और अपना पथ दर्शन ।  कहीं भी राग और द्वेष बने इससे उत्तम होता कि वहाँ से ध्यान हटें (उपेक्षा)। अपेक्षा नहीं हो तो राग और द्वेष नहीं बनता है जैसे लोक के अनन्त अपराधियों का चिंतन नहीं बनता है जबकि किसी ओजस्वी या नायक या नेतृत्व (आचार्य) के प्रति तर्क के केंद्र बन जाते है ।  जो युगल तृषित आप सुनते है , वह स्वस्थ ललित दशा जिस तरह उस काल में मुझे स्वछन्द और स्वतन्त्र चाहिए होती है तब जिन्हें भी अपने राग या द्वेष मेरी आवश्यकता उनको विस्मृत कर ही ललित रस में भीग सकते है ।  सो आप भी ललित निकुँज रस में जब भीगे , तब बाह्य संस्कारों को पूर्ण छोड़ दे । लोक भी सद्मार्ग की उपेक्षा कर अनुचित पथों में चलता ही चलता त्यों हम अपने निर्मल पथ पर भीतर ही भीतर उड़े या तैरते रहें  एक नए युग का बालक भी लाख मना करने पर फोन पर गेम खेलना नहीं छोड़ता त्यों हम भी ज़िद्दी बने ।  भोगी किन्हीं का चिंतन ना कर भोग को भोगते है परन्तु प्रेमी सर्वदा अन्यों का चिंतन कर अपने प्रेम के जीवन को बद्ध कर लेता है । प्रत्येक प्रेमी यह मानेगा कि उसन...

पुर्वाराग संस्कृति । तृषित

*पुर्वाराग - संस्कृति* ध्रुवपद गायन लगभग लुप्त है और शेष है तो भी यह सूचनाएं नहीं कि उसके सँग से लीला दर्शन बन पड़ता ।  कोई भी रसिक-पद ध्रुवपद रीति से गान हो तो वह गायक और डूबकर सुनने वाले को दृश्य हो सकते है ।  वर्तमान ऐसे गायकों को भी यह सूचना नहीं है कि यह चेतना को निर्मल भावना में भीगो देता है सो वें पूर्ण आन्दोलित नहीं हो पाते । ध्रुवपद का चमत्कार अगर भजनीय जनों को भी पता चलता तो वें इसे सुरक्षित कर ही लेते ।  यह विधा लगभग लुप्त है और लगभग सब पद सन्मुख होकर भी सुरँग प्रकाश हीन ।  हमारी पीढियां परम्परागत रीतियों में अपनी नव पीढ़ी को डुबोई भी नहीं ।  वास्तविक संगीत जितनी शीघ्रता से भीतर की यात्रा पर ले जाता वैसे ही पाश्चात्य या मॉर्डन संगीत भावना भँग कर देता । जैसे एक सुर है तो एक असुर  और आगामी पीढ़ियाँ असुरता के सँग है । प्रेम लालसा से संगीत एक सन्धि है और प्रपञ्च की इच्छा से संगीत ही विभक्ति हो सकता है । वाद्य भी जो संस्कृति गत है वें ही भक्ति पथ के सरस प्रवाहक है और जो आधुनिक वाद्य है वह पाश्चत्य लालसा का ही राग प्रकट करते है जैसे गिटार विकृत बाह्य मात्...

रँग पिचकारी , युगल तृषित

*रँग पिचकारी* ललित रँग श्रृंगारों का गीला (गलित) अँकन । प्रेम की कोपलें जब मधु वेला का कैशोर्य विलास खेलती हुई झरित होकर रस बन ढहती है तब अचानक रस की वह उरेख शुष्क जीवन पत्र को भर देती है रँग चित्रों से ।। सुरभित गोपन मदिरा की बिखेर का यह निराला कौतुक सभी कौतुकों का सिरमौर उत्सव ..जिसमें प्रेम अपने होने का आह्लाद उच्छलन खेल पाता हो ... अहा , यह प्रीति फूलों की अभिसार तूलिका का विनोद महोत्सव और ...वह कुँज के सर्व उल्लास में प्रकट हो आई इस धार से सुभगिनी बिहागिनी दुल्हिनी ...सुगोप्य रसिका माधुरी जू की कम्पित - स्पंदित सी रँगीत दशाएँ ।  पानी ही जिन्हें भीगो कर कम्पित कर सकता हो , वह कभी अनूठे प्रेम रस रँग की मार झेलेंगे तो अनुभव होगी कहीं कोई अलबेली पिचकारी । हाँ केवल प्रेम ही झारती ... पिचकारी । रँग की उरेखनि ...मेरे निज रँग की । मदिर सुरँग नयनों का भ्रूविलास ...जब घुमड़ कर बिखेर देता है , अपना रँग तब रस के वह वपु झेलते है कोई ... मधु पिचकारी ।  व्यवहार मण्डल में मनाए उत्सव की वह प्राकृत रँग की पिचकारी की धार , अलबेला उत्स लगी हो तो यह संकेत है कि हृदय में कहीं न कहीं आकुलित प्रे...

थाट और राग

*थाट और राग---* *बिलावल थाट-- देवगिरि बिलावल, दुर्गा , हेमंत, जलधर केदार, कौशिक ध्वनि ( भिन्न षड्ज), शंकरा, देशकार, गौड़ मल्हार, हंसध्वनि, बिहागड़ा, अल्हैया बिलावल, बैरागी तोड़ी, मांड*  *कल्याण थाट--- हमीर , मारू बिहाग, शुद्ध कल्याण, बिहाग, देवश्री, नंद, सरस्वती, शुद्ध कल्याण, छायानट, गौड़ सारंग, हिन्डोल, केदार , सरस्वती केदार, श्याम कल्याण, भूपाली, कामोद, यमन*  *खमाज थाट---देस , खमाज, रागेश्री, गोरख कल्याण, खम्भावती, तिलक कामोद, कलावती, नारायणी, तिलंग, झिंझोटी, तिलंग बहार*  *आसावरी थाट----गोपिका बसन्त, अड़ाना, जौनपुरी, कौसी कान्हड़ा, शोभावरी, दरबारी कान्हड़ा, देवगंधार*  *काफी थाट----अभोगी कान्हड़ा, बागेश्री, जोग, लंका दहन सारंग, मालगुंजी, सारंग (वृंदावनी सारंग), सूरदासी मल्हार, बहार, भीम, हेमश्री, जोगेश्वरी, काफी, मधुकौंस, मल्हार, रामदासी मल्हार, शिवरंजनी, सुहा सुघराई, भीमपलासी, देसी, हंसकिंकिणी , पंचम जोगेश्वरी, मधुमाद सारंग, मेघ मल्हार, पटदीप, धानी, हरिकौन्स, जयजयवन्ती , नायकी कान्हड़ा, पीलू , शहाना कान्हड़ा, सिन्धुरा*  *भैरवी थाट----भूपाल तोड़ी, जोगकौंस, धना...