पुण्यफल त्याग , तृषित

*पुण्यफल त्याग*

पुण्यों के सुफल से सावधान रहो , वह आपके सूक्ष्म प्रेम को विराट नहीँ होने देगें । किये हुये पूण्य आदि की सच्ची विस्मृति ईश्वर पर आपका उपकार होगा । तब आप दिव्य ऋषि ही होंगे । पाप के फल को जिस तरह हम त्यागते है , ठीक उसी तरह पूण्य फल का सहज त्याग ही नहीँ , विस्मृति हो । अपितु किस धर्म-कर्म से पूण्य और किस से पाप हुआ यह ही भुला दिया जावें ।
पाप का बोध होने पर उचित दण्ड स्वीकार करना चाहिये । प्रायश्चित की आड़ में फिर पाप की अभीप्सा होती है । मैंने देखा लोग नित्य पाप कर नित्य प्रायश्चित कर लेते है , फिर पाप करते है , छोड़ते नहीँ । जैसे गौ को चारा दे दिया , ऐसे प्रायश्चित । प्रायश्चित एक पूण्य का क़दम ही है । पूण्य पथ पर चलते हुए पूण्य स्थिति की विस्मृति आवश्यक है । आध्यात्मिक के लिये स्थूल स्मृतियो का कोई अर्थ नहीँ । आत्मा की ईश्वर से संधि में शेष प्रपञ्च की स्मृतियाँ बहुत बाधक है ।
चेतना स्मृति में लौटने लगें और लोक की स्मृति के प्रति आस्था भी बनी रहे तो कैसे वास्तविक स्मरण की लालसा जगी ??? अपने श्रीप्रभु से नित सम्बन्ध और सेवा की भावनाओं का स्मरण चेतना को लौट सकता है, लोक विस्मरण से । बाह्य वैराग्य नहीँ । आंतरिक वैराग्य हो हृदयस्थ , हृदय को किसी का एक का ही कहा जा सकता है , जगत या भगवचरणाश्रय ।
पूण्य की विस्मृति सहज नहीँ ऐसा हुआ तो प्रकृति पग पग पर नमन करेंगी , और वह नमन भी उस स्थिति में अन्तःकरण से स्वीकार कहाँ होगा ?
आपका पाप आपका उद्धार कर देगा उस पाप के फल रूपी दण्ड को भोग  लीजिये ।
खूब यज्ञ , भजन , सेवा , जप-तप हो , परन्तु अकारण , इन भावनाओं के स्वभाविक फल है , अपने मन के कारण और कामना वहाँ रखने से मूल में हानि ही है । निष्काम चित् से प्रेम पुष्प खिलता है और प्रेम में निष्कामता का ही सहज वास है ।  - तृषित । जयजय श्री श्यामाश्याम जी ।

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