भाव-वेदना , तृषित

*भाव-वेदना*

भाव स्थिरता होती है , वेदनाओं के पोषण से । घाव की सम्भाल होती है यहाँ , घाव (वेदना) मिट जाता है तब होती है महापीडा । घाव गहन हो नित गहन हो वही स्थिति उतनी ही सरसता से भरी हुई होती है । संसार की सबसे महँगी वस्तु है दर्द , जीवन मे यह सस्ते में आज सुलभ है तो इसका महत्व अनुभवित नही हो पाता । गहन रात्रि के अनुभव से भोर सुरमय हो पाती है । वस्तुतः आज रात्रि रस का अनुभव हमारे पास है नहीं क्योंकि हम रात को भी रात कहाँ रखते है , उसके अनुभव को तज कृत्रिम प्रकाश कर हर्षित रहते है । अतः कभी दिन के प्रकाश से भी पहचान नहीं बना पाते है । बाह्य जीवन श्रृंगार शून्य है जहाँ, वह कल्पलता रूपी भाव के श्रृंगार के मर्म को समझ नहीं सकता । भाव श्रृंगार तो बाहर के वस्तु जगत (प्राकृत) से वेराग्य होने प्रकट होता है ।
सत्य की यात्रा तप कर ही सिद्ध होती है , सप्त लोक में सत्य से पूर्व तप लोक है । बिना ताप सत्य अनुभवित नहीं होता । भावुक के लिये भीतर और बाहर सँग के घनत्व से सेवामय दर्शन करना जगत सँग बहुत विकट होती है । प्रत्येक प्रपञ्ची यहीं मानता है कि वह भावुक ही है और वह सत्य का बिना तप ही सँग भी चाहता है , हम माटी के पात्र  ताप के अभाव मे रिक्त चित्त हो ही नहीं सकते । अतः आज के सत्संग में सत्य का सँग कम और उससे निम्न स्तर अधिक होते है , ताप देकर स्वरूप लालसा भर तक का सत्संग सम्भव हो पाता है क्योंकि पूर्व में तप स्थिति प्रपञ्च में कहीं किसी की होती नहीं , सत्संग से पूर्व तप सिद्धि होनी चाहिये । तभी सत्य का नित्योत्सव अनुभव होता है ।  वस्तुतः सत्संग की कारगरता पात्र रिक्त करने की नहीं है रिक्त पात्र में सत्यलोक भरने की है । अपितु हमारी भाव यात्रायें सत्यलोक के सिद्ध स्वरूप के लिये होती है जिससे वें सत्य को आनन्दमय चेतन कर महाभाविनि के श्रीचरणों में सेवायत अनुभव कर सकें । तप सिद्ध ही सत सिद्ध होते है और सत सिद्ध ही भावसिद्ध होते है ज्ञात सत के भी विस्मरण से ।
यह सत्य का विस्मरण सेवार्थ है ऐश्वर्य बोध में भाव सेवा सम्भव नहीं होती , वहाँ प्रियतम की त्रिभुवन अधीश्वरता स्मरण रहने से प्रेमास्पद स्वरूप अनुभवित नहीं होगा । अतः भाव सत्य की उत्कर्षता से सिद्ध होता है , हमारी वर्तमान स्थिति तो जीवन रहते हुए सत्य का ही स्पर्श नहीं कर पाती ।
महास्मृति के प्रकट होने के लिये महानिवृत्ति वाँछित है । यहाँ विश्वमोहन मनोहर प्रियतम की स्वयं मनहरणी प्रियतमा रूपी स्मृति रस का आस्वदनीय रस कोई प्रपञ्च के सँग से अनुभवित वस्तु मात्र नहीं है । प्रपञ्च का स्पर्श भाव के मर्मत्व को गहराने नहीं देता अतः भावुक प्राकृत-संसार मे निजरस सार वस्तु नहीं पा सकते  और भवपाश से छूटना चाहते है जबकि शेष भवरोगी लौकिक व्यक्ति-वस्तु में ही मोहित रहते है ।  भाव-वेदना पोषणार्थ भावुक स्वयं को प्राकृत प्रकाश से छिपा कर भीतर के सहज रसमय प्रकाश में सेवायत रखते है । यह भाव यात्रा बाहर जितनी छूटती भीतर उतनी ही गहनतम उछाल लेती है और यह आंतरिक उछाल कोई साधारण नहीं होती , क्रमिक भू-भुव आदि सप्त लोक लाँघ कर भावराज्य का अनुभव करना उतना ही जटिल है जितना दूध को पकाए बिन मक्खन खोजना । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
समस्त वेदनाओं ताप से तपलोक  की यात्रा को पार किया जा सकता है । सत्य लोक स्वयं प्रकाशमय होने पर तेजोमय होकर भी तापमय नहीं है । जैसे भास्कर को निज प्रकाश से क्षति नहीं वैसे ही सत्य लोक है । यहीं सत तत्व अग्रिम भाव यात्री होता है अतः वेदनाओं का पोषण भाव की तपोमयी यात्रा है ।
रसभाव भावुक के लिए प्रपञ्च ताप देता है जिससे अन्तःकरण का शुद्धिकरण होता रहता है । अन्तःकरण के विशुद्ध होने पर उसका पृथक अनुभव नहीं रहता अर्थात मन-बुद्धि आदि विशुद्ध होकर सहज रहते है उनमें सहजता के स्पर्श की ललक के अतिरिक्त कोई पृथक चिन्तन नहीं होता है  , तब वह हृदय की द्रवीभूत स्थिति से अभिन्न होकर भावदेह अनुभव को स्वयं में टटोलने लगता है । अंतःकरण का बाह्य विक्षेप भँग होने से वह हृदय के भाव में ही वास्तविक जीवन खोज लेता है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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