चरण श्रृंगारिकाएँ , तृषित
*चरण श्रृंगारिकाएँ*
मूल में श्रीकिशोरी जू अप्राप्य परमोज्जवल स्वभाविक श्रृंगारिणी हरिणिका नीलरस की भावहरितिमा के नवनीतहिय सिन्धु पर खिलती कुमुदिनी है । जो कि सरस फुलनियों को मधुता प्रदान करती है । श्रीमाधुर्या मधुता की लक्ष्य परावधि स्थिति है । श्रीप्रिया प्रियतम के निज प्राणों का सौंदर्य मय सम्पूर्ण वह श्रृंगार है जिसका सम्पूर्ण दर्शन-अवलोकन मदनमोहन के लिये नित वांछा रह जाता है , श्रीबिहारी नयनों की बाँकी-तृषा श्रीप्यारीजू । अप्राप्या की प्राप्त प्रति इकाई , महाभाव सुधा रसिली की प्रति बिन्दु उनकी ही निज रेणुका संस्पर्श से ललित होती है । रेणु सजलप्राणों सँग हरित हो सकती है परन्तु ललित होना किन्हीं सहज ललित श्रीजावक जुत श्रीचरणों को प्राणों में स्थायी रूप छाप लेने पर ही वह मञ्जरी हृदय में नित नव कैंकर्य सँग सहचरी हो पाती है । प्रेमातुर होना सामर्थ्य से परे स्थिति है क्योंकि समर्थतायें अभिलाषाओं से प्रकट होती है । श्रीचरणों की सेवालालसामयी असमर्थता की लोलुप्ता जिन्हें प्राप्त होती वहीं ललित श्रृंगारिकाएँ मोर पँख के संस्पर्श की सहलती छुअन से रसित धरा का श्रृंगार कर सकती । श्रीकिशोरी रेणुका आश्रय ही हिय और ललाट (भाग्य-विवेक) का सुहाग जहाँ वहीँ निर्गुण प्रीति अनुभवित हो सकती है । मस्तिष्क का तिलक हृदय के अनुगमन का उद्घाटक है । हृदय और ललाट का समुचित एक अनुगमन आवश्यक है । अपने ही ललाट का श्रृंगार महामाया का श्रृंगार है क्योंकि भाग्य महामाया के अधीन है , महामाया प्रभावेण संसार स्थिति कारणा । अकारण प्रीति के लिये समूचे जीवन की कारण स्थितियों को उसी निर्गुण सहज प्रेम रँग में रंगना होता है । अपनी ही नींव-शक्ति को उसी रँग में भीगे हुए निहारकर उनके आश्रय में मन्जरित्व की साधना होती है । हमारी मूल नींवशक्ति ही गुरूवत दृष्टिगोचर हो सकती है । तृषित । श्रीहरिदास । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । हरे हरे ...हरिणिका
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