पराभक्ति आरती वृत्तिका , तृषित

*पराभक्ति आरती वृत्तिका*

विरक्ति एक वह होती है । जहाँ जगत से बाहरी वैराग्य पर जगत ही आश्रय होता है ।
और एक वह , जहाँ जगत ही विषय दृश्य होने पर आश्रय जगत नहीं होता है ...
विरक्ति है विषय-राग से उपाधि पाकर नित्यरस-अनुराग की अनुरक्ति ।
आश्रय और विषय भाव की एकमात्र एकता रागात्मिक माधुर्य सम्बन्धों से भरी परा-भक्ति में है ।
परा परत्व के त्याग पर फलित अनन्य सम्बन्ध मयी भगवत वृत्ति है जो श्रीभगवान के भावहृदय में वास करती है और इस भाव राज्य का प्रस्फुटन ही हृदय स्वामिनी की मधुरता मयी लहरों से उन्हीं के प्रियतम को आह्लादित सुख दिया जाता है । अर्थात् यह अप्राकृत रस में समपर्ण है ।
भक्तिमहारानी की यह अनन्त वृत्तियां ही स्वभाव कहा जाता है । अनन्त स्वभावों में कोई एक स्वभाव प्राप्ति सुभावता से प्रकट होती है ।
सुभाव मात्र नयन प्रियतम सँग अनुभव करते है ।
और प्रियतम का सहज सँग मात्र श्रीप्रिया को प्राप्त है क्योंकि दृश्य वस्तु में श्रीप्रियतम-दर्शन की सामर्थ्यता मात्र श्रीराधिका नयनों में है ।
परन्तु यह राधिका के नयनों का अनुभव उससे जो कहती है वह मंजरियाँ उन नयनों से स्वयं श्रीकिशोरी अतिरिक्त अन्य वस्तु दर्शन नहीं करती है । श्रीप्रिया सुख हेतु श्रीयुगल केलि दर्शन करते हुये ..श्रीयुगल केलि रस माधुरी में भरी वह सेवा झारियाँ ही श्रीप्रिया सुख में भरी होती है । और श्रीरसिक हियआह्लादिनी के नाम-चिन्तन से भरे अति-आह्लाद को पीकर तृप्त होने की अपेक्षा श्रीकिशोरी हिय का उत्तरोत्तर उल्लास श्रृंगार ही जिन्हें तृप्त करते हुये और अपनी लाडिली को लाड देने की वृत्ति भर गई है वह परा को अपरा होकर रस  देती पराभक्ति में भरी वृति है । जो भक्ति योगमाया प्रकट करें और जिसमें माया से अनुराग रस (योग) में रहने हेतु साधन हो वह अपरा द्वारा प्रकट रस है । और जो रस स्वयं आह्लादिनी जू से आह्लादित होकर झरें वह सर्व माधुर्या की माधुर्य सेवा है ।
मूल में यह श्रीराधिका के नयनों की रहस्यमयी स्थितियों का अनुभव जीवन ही भक्ति कहना चाहिए क्योंकि भक्ति को आह्लाद वृत्ति कहा गया है ।
वृत्तियाँ दृश्य का अनुभव देने की ही सेवामयी वह शक्तियाँ है जो दास्यता में निज रसभाव-सामर्थ्य को श्रीकिशोरी जू को  सहज-अर्पण करती रहती है । स्वयं त्रिपुरेश्वरी यहाँ निर्गुणेश्वरी श्यामा की ललितप्रेममयी दास्यार्थ नित प्रणामित महावृत्तिका है ।
वस्तुतः सेवा आर्त्त हरती है और सेवार्थ वृत्तिका (बत्ती) ही आरती उतारती जलते जीवन से मधुर रक्षण अपनी स्वामिनी श्रीकोमले श्रीप्रिया का ।
इस वृत्तिका का बाह्य स्पर्श तपोमय भास्करवत ललित होकर आशीष देता है और मधुरमय चन्द्रिका होकर भी प्रेम गाढ़ फुलनियों को सुहाग से सजाता है । रँग देता है मकरन्द भरी फुलनियों को फूलता देती कोमल श्रीप्रियाचरण थली को जावक से वह हृदय हरिदास है । तृषित नयन श्रीआह्लादिनी जू के ।  *श्रीहरिदास* दासी वही वर्तिका पुकारती  पुकारती ...क्या ????
*। जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।*

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