गहन लालसा , तृषित

गहन लालसा

जीव स्वप्रकाशित शक्तिपुंज नहीं है । वह नित्य प्रकाश से चेतन अणु शक्ति भर है ।
जैसे सूर्य की रश्मियों में अनन्त प्रकाश-कण होते है परन्तु वह स्वयं सूर्य नहीं है , हाँ उनकी जीवन शक्ति सूर्य से अभिन्न है ।

यह अणु शक्ति के ही सारे प्रयास उसे उसके जीवन भास्कर से अनन्त दूरी पर लें जाते है । इन बिखरे प्रकाश कणों को समेटना ही सूर्य का अस्त हो जाना है ।

ऐसे ही रसब्रह्म जीव के मनोअभिलक्षित रस की सिद्धि के लिये निज विलास में डूबे हुए है ।

जिस तरह सूर्य के अस्त होने पर प्रकाश कण का होना सम्भव नहीं वैसे ही स्वयं रसब्रह्म श्रीमदनमोहन के निज विलास में डूबे रहने से उससे बाहर रस विलास की अनुभूति है ही नहीं ।

तब भी जीव यात्रा कर रहा बाहरी , खोज रहा है वह विलास जो अनन्त की गहराइयों में नित्य घनिभूत उज्जवलित है । उज्ज्वल विलास ।

जीव की अपनी यात्रा ही असहज कर देती है उसे । यात्रा तो करनी है परन्तु उन प्रकाश कणों की भाँति बिखरे ऊषा कणों की तरह जो सभी सूर्य के अस्त होने पर अस्त और उदय होने पर उदय हो रहे है । अर्थात अपनी यात्रा हो श्रीमनमोहन की निज माधुर्यता पर । उनकी सम्मोहनी शक्ति ऐसी घनिभूत है कि योगियों के योग छूट जावें , शिव गोपी होने को लालायित हो जावें । परन्तु जीव उस सम्मोहन का अनुभव कर नहीं रहा । करता तो स्वयं को वेणुगोपाल की वेणु माधुरी पर बजता हुआ कोई रव अनुभव कर उनके निज माधुर्य से अभिन्नत्व की यात्रा में खींचा चला जाता । यह श्रीकृष्ण खेंच लेते है , परन्तु यहाँ इस प्रपञ्च में नित्य मृत्यु है चेतना की । वह तनिक मृत्यु की परिधि से बाहर झांक लेंवे तो उसे उसका निज माधुर्य अमृत रसास्वदन खेंच लेगा । जैसे बिखरी धाराएं दौड़ती है सुधानिधि से अभिन्न होने को । यह धाराओं का निज बहाव नहीं है उसी माधुर्य सुधानिधि की आंतरिक पुकार है ।  ....घनिभूत मधुरतम यह पुकार कोई काल्पनिक नहीं है , सत्य में यह ही समर्थ है जीव को रसभुत सिद्ध कर देने में । अपनी दौड़ इस पुकार का अर्थात एकांतिक वेणु नाद का अनुभव करने ही ना देगी ।

घनिभूत लालसा नित्य अतृप्त है । आज का मानव कागज के श्रीकृष्ण में सन्तुष्ट है । उसे लालसा ही नहीं घनिभूत दृश्य शक्ति से उत्कृष्ट दर्शन मधुरातीत मधुर अपरिमित सौंदर्य सुधा श्री रसिकशेखर के उनकी निजप्रिया सँग दर्शन ।

आज के भक्त रस के अभिनय से संतुष्ट है । महाभाव-रसराज सँग का वास्तविक लोभ उनमें उछलता ही नहीं ।
यह वेणु माधुरी जीवन मे गूँजती है सर्वभूत मधुर स्वर में अतृप्ति होने पर । बाहरी स्वर की तृप्ति भीतर वेणु होकर कैसे गूँजेगी । यह वास्तविक आस्वादन उसे प्राप्त है जिसे सत्य में प्रपञ्च रिझा ही नहीं सकता । अब यह पढ़ कर लगेगा मुझे लोभ श्रीवेणु माधुरी रसास्वदन का । तो वह लोभ भी निज परिश्रम जन्य नहीं होता । परिश्रम तो समस्त परिश्रमों से छूटने का होवे समस्त बाहरी परिश्रम छूटते ही नित्य रस में जीव भीगा हुआ होगा अनुभव होगा जब पुनः परिश्रम जन्य स्वांग उसमें उछलेंगे । परिश्रमों का त्याग ही विश्राम काल है । विश्राम और परिश्रम की एकता असम्भव है । अतः स्व से मुक्त होते ही रसास्वदनीय निधि में वह एक रस बिन्दु वत अभिन्न हो जाता है ।
हमने श्रीयुगल रस हेतु वेणु माधुरी पर कुछ उत्सव चाहे , हुए भी । पर आप अनुपस्थित क्यों थे क्योंकि श्री श्यामसुन्दर के इस मधुरतम माधुर्य लालसा भरे अतृप्त मधुर नाद से कभी अभिन्न लालसा हुई ही नहीं । यह वेणु अमृतवर्षिणी है ...सत्य में ! अमृत की वर्षा है यह , जल तो हवा हो जाता है कितना ही पिलो । पर अमृत नित्य मधुरतम रसभुत आस्वादन है , उस आस्वदनीय स्थिति उपरांत उस आस्वादन से कभी विछोह नहीं है । ऐसी मधुर अमृत सुधा लोभ जीव में क्यो नहीं ????
क्योंकि उसका मन सभी जगह अटकता है भूलोक पर ही । हमारा मन भी वास्तविक  हो तो वह अमनिया रह्वे ....लालायित रह्वे । नित्य मधुरामृत में डूबने को । परन्तु वह वास्तविक लालसा भी उदय होती मधुरतम श्री युगल के प्रीति प्रसादी से ...तृप्ति का अविष्कार प्रेम ने किया ही नहीं । अतृप्ति से उदय होकर अतृप्ति सुधा में डूब जाता यह प्रेम रूपी चन्द्र । जीव का मन प्रत्येक विषय का भोग करता है , इसीलिये इस धरती पर अनगिनत बाजार है । पर कोई एक बाजार जीव के मन को पोषित नहीं कर पाता सो वह सारी धरती के बाज़ार घूम आता है । यह सारी धरती के बाज़ार सजते तो अमृत बाँटने को है परन्तु मूल में मन के हाथ लगती अतृप्त लालसा ...यहीं मन का स्वरूप है अतृप्त क्योंकि इसकी तृप्ति है नित्य तृषित श्रीयुगल आश्रय में । प्रेम अभिलाषा में नित्य किशोर युगल की अनन्त तृषाओं की सेवा हो जाना ही इसकी मूल अतृप्त सेवाओं की यह लालसा ही मूल तृप्ति है । पर वह तृप्ति बाज़ारो में है नहीं । अपने आराध्य के प्रमोन्माद व्याकुल तृषित दर्शन कर मन अपनी पृथक तृषा को भूल जाता है अथवा उस तृषा बिन्दु को सुधा रूपी तृषा में डुबकी मिल जाती है ।
परन्तु इतना पढ़ कर भी कोई लाभ नहीं , आप मन को बाहर भेज ही रहे हो ज्ञानेन्द्रिय कोई रस बटोर कर इसे चखावे ....इस चखने में दोष है । क्योंकि ना चखना ही मन को मन रखता है , मन कोई रसिक नहीं है जो सर्व भूत रस का भोग करें वह एक सेवा भर है , हम सभी मन को भोगी सिद्ध करते है अतः भटक रहे है । सेवक पावेंगे तो प्रियाप्रियतम इस मन के सिन्धुवत नित्य अभिन्न प्राण हुए होंगे ।
अब कोई कहे ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त बाहरी रसों को चखने में क्या दोष तो यह दोष है कि चखने पर भी मन की तृप्ति सम्भव नहीं है , मन अपना लालायित स्वरूप बार-बार खो देता है जिसके वास्तविक तृषा का अनुभव हो नहीं पाता । यही सभी ज्ञानेन्द्रियों आंतरिक रस भी स्पर्श कर सकती है चेतना स्थूल संस्पर्श से स्थूल गति करती है । स्थूल भी चेतन संस्पर्श से चेतनमय गति पर दौड़ सकता है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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