श्रृंगार लालसा , तृषित
श्रृंगार लालसा
रँग भरी कुँज ...सभी सखियाँ यहाँ वहाँ खोज रही...
...मिली सखी वह वस्तु
....ना सखी , मौहे न मिली
सभी शीघ्र निहारो कहाँ गई ...कहाँ गई ....प्रिया प्राण की रक्षा के लिये उसे शीघ्र तलाशो सखियों .....
नीलमणि ...कुंदन कुसुमों से ऐसे सज गए है कि अनन्त का आकाश होती वह नीलिमा खो गई है । वहीं नीलिमा ...जो प्राणप्रियतमे के नीलमणि है । अन्तरपुर में वहीं नीलमणि श्रीप्रिया जू की सँजीवनि दायिनी प्राणप्रदायिनी निज हियमणि है । द्वितीय वस्तु नहीं वह ...हिय-प्राणों का श्रृंगार है वह । ....और वही नीलमणि रँग गई है कुंदनों की प्रभा से जैसे कोटि-बालभास्कर छलक रहें हो । अब कहाँ तलाशें उन नीलमणि को यह अनन्त विधि श्रृंगार मंजरियाँ रचती है कि स्वयं वह भृमर आ जावें अपनी नवदुल्हिनी के प्रेमालाप करते आभूषणों की खनक से । सजाया जाता है अनन्त श्रृंगारों से अनन्त श्रृंगार कुँज में श्रीप्रियेश्वरी को ...और सभी श्रृंगारों पुष्टि होती युगल सेवा से सो ...यह श्रृंगार नीलमणि की हियमणि हो जावें जब यह श्रृंगार प्यारी जू को सजाने में उनके प्रियतम का सुख हो पाता है । प्रिया-श्रृंगार के हियनीलमणि यह प्रियतम । निज हियप्राण ...निज हिय दर्शन है यह श्रीप्राणवल्लभीके लिये । अपने ही हिय का दर्शन ...अपने ही हिय का श्रृंगार । वृन्दावन श्रृंगार कर रहा है अनन्त सखियों के अनन्त श्रृंगार कुँजन से श्रीयुगल के एकान्तिक अनन्य श्रृंगार का । यह कुँज श्रृंगार कर रहे है सखियों के हुलास का । सखियाँ श्रृंगार कर रही है श्रीवृन्दावनेश्वरी आश्रय से श्रीप्रिया का । वहीँ श्रीप्रिया श्रृंगार की अनन्त सेवाविलास वहां सेवामय है अनन्त सखियों की निधि रूप । उन्हीं श्रृंगार निधियों की निधि है ..दिव्यतम श्रृंगार निधि है ...रसराज नीलमणि मनहर । यह नीलमणि श्रीप्रियाजू की श्रीप्रिया जू को प्रदान कर श्रीप्रिया का सम्पूर्ण श्रृंगार रचती है अष्टसखियाँ नित अनन्त किंकरियों के सँग से । एक-एक किंकरी में श्रीप्रिया संवेदना बड़ी गोपनीयता से पढ़ने की क्षमता होती है और प्रति स्पंदन पूर्व वह वांछा सिद्ध करती किंकरियाँ । इन्हीं श्रृंगारों में श्रीप्रिया जू के मुखचन्द्र पर अधरसुधामृत का पान करती वेणुका जो श्रृंगार की दिव्य सेवा मयता में अधरों पर विराजमान होकर हिय की सुनती है और सुनाती है मनहर को । श्रीप्रिया श्रृंगार में स्वयं को असमर्थ पाते प्रियतम जावक सुरँगीत रेणुका होकर पदतली श्रृंगार होने की लालसा में निहारन में असमर्थ होते है । क्योंकि श्रीप्रिया का निज श्रृंगार ही उन्हें निहार सकता है , वहीं नीलमणि प्रियतम प्रिया की निज हियनिधि श्रृंगार है । अनन्त श्रृंगार श्रीप्रिया के इतने मधुर कोमल है कि श्रीलक्ष्मी आदि के लिये रेणुका हो जाना दुर्लभ है ...... श्रृंगार लालसा ही श्रीवृन्दावन वास का सार है । श्रीयुगलप्राण का ललित-प्रेमरस-भाव का का कोमलतम श्रृंगार हो जाना ।
श्रृंगार ...श्रृंगार लालसा जीव के पास है ही नहीं । है , पर वह इसे अनुभव करता ही नहीं । अनुभव करता भी है तो निज देह श्रृंगार को स्वयं निहार किञ्चित काल तुष्ट हो जाता है । न वह श्रृंगार काल में निजता से श्रृंगार करती किंकरियों के हियभाव अनुभव करता है । ना ही स्वश्रृंगार में प्रफुल्लित प्रीति के भावों को अनुभव करता है और ना ही निज नयनों से निजश्रृंगार दर्शन का जो रस है उसमें मनहर मन को पाता है । और ना ही वह श्रृंगार वस्तु से ममत्व रखता है , जीव की वस्तु के प्रति भोगदृष्टि रहती है ...अभिन्नता नहीं । तब वह उज्ज्वले श्रीप्यारी सँग नीलमणि श्री मनहर के सम्बन्ध का अनुभव भी नहीं कर सकता । क्योंकि निजश्रृंगार दर्शन ही जड़ है तब रसराज-महाभाव के कोमल श्रृंगार में वह कैसे प्रवेश करें । अपितु भावराज्य लालसा लगती ही निज स्वभाव श्रृंगारार्थ है । श्रीयुगल श्रीवृन्दावन श्रीसहचरी श्रृंगार की ललक किसी केंकर्या हिय में उठे तब वह निज क्षण उनके श्रृंगार सेवा में स्वयं को अनुभव करें । जीव की यात्रा ही जड़ है , वह भगवत श्रृंगार वस्तु होने की अपेक्षा श्रीस्वरूप श्यामाश्याम को वरण करना भी चाहता है तो निज श्रृंगार हेतु । श्रीयुगल कोमल है , श्रीवृन्दा अति कोमल ...जीव जब चाहे यह उसके श्रृंगारक हो भी जाते है । जिस वृन्दा ने किसी वैष्णव को वरण होते समय सजाया ...जिस रेणुका ने शीष पर तिलक हो श्रृंगार किया उन्हीं की श्रृंगार-सेवा होते हुए नामामृत रूप सँग स्वामिनि-स्वामी युगल निधि के श्रृंगार की रेणुका मात्र हो जाने की लालसा है .... .... श्रृंगार लालसा । परन्तु यह लालसा युगलार्थ उठती ही नहीं प्राकृत धरा पर । सेवालालसा का उमड़ता रसरंग हुलसित सुधानिधि अर्थात समुद्र सा हिय होवें तब श्रृंगार तरँगों का अनुभव होता है । वृन्दाटवी कि पत्रावली-दृमावली-पुष्पावली ही नहीं रेणुका भी निज ललित कन्द से सजाती है श्रीप्राणप्रिया को और यहीं प्राणप्रिया स्वयं शिल्पिका है एक घनिभूत मधुरतम नवल किशोर रसराज स्वरूप श्यामसुन्दर की परन्तु यह निधि इतनी सुंदर वह स्वयं सजा दी है कि निज हिय मणि को देख देख विदग्ध होती है हिय में धारण कर लेने हेतु । अर्थात श्रीप्रिया वह महाभाव भूमिका है जहाँ श्रीकृष्ण रूपी आनन्द अनुभवित होते है । श्रृंगारित होते है नित...तृषित...कृति रसिका हर्षिणी की निज रस नीलमणि रसिक नागर नवल किशोर । जयजयश्रीश्यामाश्याम जी । तृषित ।
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