जटिलता क्यों , तृषित

*जटिलता क्यों ???*

मेरी वार्तायें बहुत सरल है । इतनी सरल  की वह होकर भी है ही नहीं ।
परन्तु सर्वरूपेण वह जटिल लगती कारण है । स्वरूप-स्वभाव विस्मृति जन्य दोष जिससे अविद्या का ढाँचा प्राण छूटने उपरान्त भी नहीं छुटता । वास्तविक भावगत पकड़ गाढ़ी ही होगी थोथी नहीं । गाढ़ता का सदा जीव त्याग चाहता है अतः प्रपञ्ची सहज भाषा की गाढ़ता में परस्पर विलसते हुलास को अनुभव ही नहीं कर सकता है । संसारी बहुत बार मेरी कथनी और लेखनी को स्वयं के अनुकूल धारण करने का प्रयास करते भी है ,परन्तु गहराई में मछलियां और होती है ...उथले में और । हर मछली तल को नहीं नाप सकती ।  न ही ललक क्योंकि तल के नापने को डूबना कहते है और डूबना तैरना नहीं होता । जीव के नयन तैरते है ...डूबते नहीं । नयन ही नहीं सभी इन्द्रियाँ मात्र तैर कर रस चाहती जीव की । डूब कर नहीं , स्व को नित खो देना ही  डूबना है । मूल में यह आश्चर्य का विषय की भगवतरस डुबकी भी जीव अपने निर्देशन में चाहता है , ना कि स्वभाविक । बहुत बार जीव इच्छा वशीभूत मैं अनुतीर्ण रहा हूँ तैरने में ।क्योंकि स्वरूप स्वभाव की मूल प्राप्ति रसभाव सुधा में डूब जाने पर ही सिद्ध होती है ।
संसारी तो बरात का ढोल पसन्द करता है , जिस पर वह कूद लेवे और उसे नृत्य कह दे । परन्तु पखावज़ की अनहद छेड़ती थिरकन पर नाचना हम सभी के लिये दूभर है परन्तु पखावज की थाप पर नाचने वाली नृत्यांगना का तो कोई दोष नहीं । वह अति कोमल थपकी को भी कठपुतलियों की तरह मधुर जीना चाहती है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी

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