भजन का मर्म , तृषित

भजन का मर्म

*श्री प्रभु के नाम , स्वरूप , गुण , स्वभाव , लीला , रुचि , हर्ष और आह्लाद से अभिन्नत्व की प्राप्ति भजन है ।* 
हम सभी प्राकृत प्राणियों की स्वभाविक बाह्य स्मृति है दृश्य प्रपञ्च । याद नहीं करना पड़ता हमें जीवन मे किसी निजता को । क्या कोई शिशु देखा आपने जो रट रहा हो कि कौन उसकी माँ है । या माँ देखी कोई जो पुत्र को विद्यालय में देख नित्य स्मरण करने का प्रयास करती हो कि कौनसा वाला मेरा पुत्र है । अपनत्व की साधना नहीं होती । अपनत्व की सहज सेवा होती है । विस्मृत जगत भजन (नामाश्रय) लेता है विस्मृति विनाश के लिये अर्थात अपनत्व अनुभव नहीं है , वह अपनत्व अनुभव होवें । यह भी उत्तम भजन है , परन्तु मूल में भजन किया जाता है सेवार्थ ।  अपने प्रेमास्पद (श्रीप्रियाप्रियतम) के सुख पोषणार्थ । अपनी विस्मृति के विनाश हेतु हुआ भजन नित्य सेवा रूपी सुख का अनुभव इसलिये ही साधक को दे नहीं दे पाता क्योंकि भजन को स्वभाविकता से भजा नहीं गया । भजन को भजन के लिये कोई नही भज पाता । सभी के पास निज कारण है , जैसे भोग-प्रपञ्च प्राप्ति , रसप्राप्ति - आनन्दप्राप्ति - भाव प्राप्ति - भगवतदर्शन प्राप्ति , कहीं- कहीं भजन और गाढ़ता से सेवा लालसा प्राप्ति हेतु होता परन्तु भजन ही स्वयं सेवा है , भजन ही स्वयं रस है , भजन ही स्वयं आस्वदनीय महाभाव समाधि है यह अनुभव सिद्ध हो नहीं पाता ....जीवन भर भजन होने पर भी । कारण , भजन को भजनार्थ न किया जाता उसके पीछे निज कोई लक्ष्य होता है अतः भजन काल मे भी वहीँ लक्ष्य चिन्तन रहता है । भजन का निज आस्वादन मिलता है ...भजन से पृथक अन्य सभी स्थितियों के गौण अनुभव हो जाने पर । तब भजन काल ही अपनत्व सिद्धि का भावस्वरूप लीलाकाल हो जाता है । भजन स्वयं अप्राप्य सिद्धि है जो कि भगवत-दर्शन से भी दूभर है क्योंकि भजनानन्दी भगवत सँग का सर्व रूप  आस्वादक  है और भजन काल नित्य नवीन आस्वदनीय मधुता है । अतः भजन काल कभी पर्याप्त होता नहीं वह अपरिमित होकर ही नवीनता दे पाता है ।
साधक भजन को रसानुभव ना कर कोई सीढ़ी ही समझ भजते है जिससे कभी वांछायें सिद्ध होती भी है तो निज सामर्थ्य की यें वांछायें कभी यथार्थ सुख वस्तु नहीं दे सकती ।
भजन नित्य काल है और नित्य स्थिति है साधक भजन नहीं करता है , भजन ही साधक को ग्रहण करता है ,साधक केवल एक उपकरण भर है भजन काल मे
और भजन वहाँ सर्व रूप विलास है । भजन का विलास प्रकट होता है कुँज में ....क्या किसी साधक को भजन काल मे निज स्वरूप कुँज या किसी वाद्य सा अनुभवः हुआ । मूल में साधक केवल उपकरण की तरह है अर्थात युगल सुख की वस्तु भर है , वह अपने भीतर के सेवात्मक सुख को जब तक निज का मानेगा भजनकाल में लीला न प्रकट होगी ।
देखिये किसी वाद्य को उसमें सुर है पर उसे आश्रय चाहिए रागात्मक आश्रय । राग आश्रय मिलने पर वह वाद्य रसग्राही ही होता तो वह वादक और श्रोता को रस कैसे देता नहीं । कोई उपकरण किसी उपभोक्ता के सुख से ही उस सुख के ही विकास हेतु सुख से बनी वस्तु भर है । भजन काल की सिद्धि जब है जब शेष काल और शेष प्रपञ्च स्मृति में ना हो । सेवा-वस्तु विकल्प शून्य होकर ही श्रीयुगल सेवा में सेवामई हो कर रस देने पर ही रस से अभिसारित (भीगी हुई ) हो सकती है । तृषित ।जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । भजन भजन हेतु हो । कारण होने पर , उस कारण का त्याग प्रथम अनिवार्य है । तभी स्वभाविक नित्य रस सँग अनुभवित होगा । कहने का तात्पर्य यह है कि भजन बद्ध जीव की लालसा नहीं श्रीप्यारे की अमृत वर्षा है ...वहाँ ही जीवन को अमृत अनुभव होता है , तात्विक दृष्टि से चेतना की सोमलालसा से भी अत्यन्त उच्च स्थिति भजन में है , वह प्रकट इसलिये नही होती कि वहाँ भजन से अपनी कामना ही मांगी जा रही है ...केवल भजन होकर भजन में रहा जावें कोई कल्याण भीतर वांछित ना होवें तब भजन रूपी कल्याण वर्षा जो दुर्लभतम आस्वादन देती है वह कल्पना शक्ति से परे बडी हतप्रभ स्थिति है ।
अपनी संपूर्णता को प्रपंच से निकाल प्यारीप्यारे के प्रगाढ सेवाओं  में लगाये रखना भजन की करुणा है ।

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