सत और असत वार्ता और सच्चिदानन्द , तृषित
सत् और असत् मै हूँ और इनसे भी परब्रह्म ( सच्चिदानन्दघन ब्रह्म ) मैं हूँ ।
ना सत् हूँ ना असत् हूँ क्योंकि इनसे परे परमब्रह्म (सच्चिदानन्दघन ब्रह्म) हूँ ।
सत् - विधि , विधान , विधिमार्ग , सत्य , नित्य , अविनाशी , (राम)
असत्- निषेध , क्षणभंगुर , नाशवान , जड़ , अनित्य , मिथ्या आदि (रावण)
सच्चिदानंद परब्रह्म -
(सत् भी है असत् भी है , सत् से असत् और असत् से सत् का बोध हो रहा है, जगत् मिथ्या यानिअसत् कहा गया है , छाया , परन्तु यह छाया ही परम् सत् का बोध करा रहा है , असत् की प्रतिती में भी सत् है । यह देह असत् है , नाशवान है , परन्तु यह नाशवान जड़ भी चेतन से योग का मार्ग है , अकेली सत् रूपी आत्मा बिन इस जड़ देह के कार्य सिद्धि नहीँ कर सकती , अतः ना ही मिट्टी के घर में रहने वाला , अपितु मिट्टी भी उसी की है , राम से रावण है , रावण में भी राम की ही शक्ति निहित है , राम और रावण की शक्ति का योग ही विशुद्ध राम की शक्ति होगी । सदा से ऐसा ही कहा ज्ञान और अज्ञान और इनसे परे मैं हूँ , वेद और अवेद इससे परे , विद्या और अविद्या और इससे परे , मुझसे प्रकृति पुरुषात्मक सद्रूप (सत् रूप) और असद्रूप (असत् रूप) जगत् उत्पन्न हुआ है । वस्तुतः असत् की सत्ता में सत् है , अतः सत् कहने पर भी असत् कुछ शेष रहे तो वह भी मैं हूँ । क्योंकि मूल में विष्टा से रस प्राप्त हो पुनः सृष्टि हो जाती है अतः विष्टा होने पर भी विष्टा रहने वाली नहीँ , वह कही न कही रस स्रोत होगी ।
कीचड़ दुर्गन्ध और कुरूपता का ही द्रवीभूत रूप है । कीचड़ की कितनी भी शुद्धि से उसमें सौंदर्य दर्शन नहीँ हो सकता , फिर भी उसी कीचड़ में दिव्य सौंदर्य है , अपनी बीज शक्ति के संयोग से कीचड़ से संसर्ग कर वह कीचड़ में से सौंदर्य प्रगट कर देता है , अतः कीचड़ में सौंदर्य था , दृश्य नहीँ था , वह क्षमता का अभाव हमारे लिये कीचड़ को हय करता है परन्तु कमल की मातृ शक्ति बनता है । अतः कीचड़ में भी ईश्वर तो है ही , अपितु पूर्ण सौंदर्य से है , वनस्पति आदि की विष्टा ही कुछ लाख वर्षो में इंधन होती है , जिसमें अपार ऊर्जा निहित होती है। कभी त्याज्य पदार्थ भविष्य में निधि हो जाता है ।
सत् और असत् से परे जो विषय कहा वह सच्चिदानन्द की रुपरेखा में कहा गया , यह भक्ति विषयक प्रस्तावना है अतः उसकी दिव्यता के ज्ञापन में कहा जो कि सत्य ही कहा । सत् और असत् से सीधा सम्बन्ध आत्मा भी कर सकती है । परन्तु यह सच्चिदानन्द से सहज नहीँ अनुभूति पा रही ।
सत् कुछ खुला विषय है , ज्ञान- प्रकाश - बोध - नित्यता का नाम सत्य है , जो सदा है । जिसका अस्तित्व सदा हैं । इस " हैं 'को अनुभूत् किया जा सकता है कि क्या सदा है , क्या नहीँ ?
चित् सत् के बोध के बाद चेतन होता है । यह है पर अनुभूत् सहज नहीँ । जड़ क्या है यह समझ चेतन को प्रकट करती है , जैसे मैं चेतन आत्मा हूँ | पहले तो गेहूँ का बोध (सत्) हो , कि वह खाया जा सकता है और उसमें भी धान्य ही खाया जावें , और उसे भी पिस कर खाया जावें , पिस कर भी भिगो कर , बेलकर चपाती बना कर , कुछ हल्का घी लगा कर खाया जावें , यह सत् हुआ । जानना ।
अब इस ज्ञान को चेतन करना चित् शक्ति का काम है । इस बोध को चेतन कर रूपांतरित करना ।
आनन्द यह द्वार कुछ गुप्त है , यहीँ खुला होता तो जीव नित्य तृप्ति अनुभूत् करता । आनन्द को ही पा लेना सत् चित् आनन्द होना है । रोटी बन गई अब उसका आनन्द लेना । यह दृष्टान्त ईश्वर हेतु है । जीव ऐसे आनन्दित नहीँ हो सकता , क्योंकि उसे यह बोध भी हो कि सब कुछ भगवान का है , उन्होंने ही किया है , उन्ही का विधान रहा , अतः इस पर मेरा अधिकार भाव न रहे और सेवामय हो इसका यथेष्ठ वितरण हो , अतः चपाती का भोग भी वें ही करें , इस भावना भर से परम् दृष्टि भोग से उस वस्तु को स्वयं भोग प्रसाद कर देते है , और प्रसाद सदा रस प्रदाता है ।
प्रभु युगल हो निज रस भाव के रस भोगी है अर्थात रस भोग से उनमें आनन्द खिलता रहता है ।
शेष रस सेवी है , रस सेवा ही जीव के आनन्द की परिधि है । यही साधक के चित्त में विकार रह जाता है कि वह रस भोगी है ... सब जिसका , रस उसका , उस रस का भोग उसका , शेष तत्व इस लीला का सेवक है ... दास है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
आकर्षण से हम वस्तु की ओर जाते है , विकर्षण से ह्यता से उसका त्याग करते है । यहाँ की ह्य दृष्टि ही कमाल है उनका ।
पाखण्ड से हमारे भीतर ह्यता आती और धर्म के प्रति सहज आकर्षण नही रह पाता । जिससे माया पाश में हम बंधे रहते । हम कहते सब और पाखण्ड , और हम ही माया पाश में बंधे होते । भगवतोन्मुखी को सर्वत्र लीला दर्शन ही होता । लीला के प्रति ह्यता नही होती । ईश्वर का जितना खेल जिसे समझ आ जाता वह आंतरिक और बाह्य लीला में बने रहने को कहते । ताकि खेल खेल रहे । इसलिये शरणागत-मुक्त के प्रति भी हम तर्क वितर्क करते है जबकि वहां केवल खेल होता है ।
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