सुरभित सँगम , तृषित

सुरभित सँगम

रसिको का मिलन ...जैसे अनन्त सुगन्धिनियाँ भर गई हो भीतर । रस समागम ...
रसिक समागम जहाँ प्राण से प्राण रस एक हो जाता है ।
एक-एक वह पुतली जो पुकार-पुकार निरखती प्राणप्यारीप्यारे श्यामाश्याम जू को । हिय उन रसिक नयनों के प्रेमाश्रुनिधि की सुगन्ध से ही जीवन मय होने लगता है ।
तू ना आती रसोत्सव में तो पीड़ा यह नहीं कि मैं रस हूँ , तृषित ही हूँ री । अपितु रस महोदधि के अनन्य स्मरण से हो चुकी एक सुंगंधित कुँज । मेरे प्राण ना समेट सकें वह युगल सेवाप्रीत पिपासा का सुरभित प्राण रस ।
बहुत से फूल होवें तो सहज ही कोई सूखा पत्ता भी कोमल सौरभता से उन फुलनियों सँग उनकी फूलती फुलमयता में डूबकर झर-झर जाता सा...। वह कोमल डुबकी ही उसे अनन्त तृषित कर देती ।  रसिकों के दर्शन सँग और सुख का भोग तपाती कोई चूल्हें में धँसी लकड़ी सी सुखमयी तत्क्षण स्व चित सी सजती वह चिता विचित्र है ... आहुत समिधा का यह समय अज्ञात अनन्त सुख रस का विचित्र आस्वदनीय भोग हो जाना । राख होकर पुनः पुनः जलने के लिये तरसना ...प्राकृत लकड़ी एक बार भोग पकाकर पुनः रसिको का सेवा सँग नहीं कर पाती । राख होकर सँग करती है । परन्तु रसिको का अप्राकृत रस तो प्राकृत राख से भी निज रस सेवा वस्तु रूपी निज ईंधन शक्ति का दोहन कर लेता है , उस भस्म की महिमा है सँग से ... । सच्चे निर्मल कोमल रसिक सँग की इतनी महिमा है कि स्वयं रसिक शेखर लालायित होते है तब हम तो उनकी लालसा की झरित किंकरियाँ भी नहीं है । लोक में मांग है... मस्ती और मस्त क्षणिकताओं को वास्तविकता का सँग इस भय से नहीं होता कि कहीं मस्ती न छूट जावें , आहुत हुई राख जो कि अब भस्म है ..ऐसी सदा के मस्त-मतवालों के सँग की वह निसार प्रायः भस्म ही प्रसाद सार महौषधि हो उठती है क्योंकि वह शीतल उमंग में मलंग सी है ।
जीवन चाहता है अनुकुल नित्य शीतलता तनिक आहुत सँग से ऐसा  कोमल-शीतलत्व नित्य हो सकता है ...
क्षणिक से नित्य रस के लालायित अपने प्राणों से कब तक अन्याय करती रहोगी ...कभी तो होगें यह भीगे गीले रसप्राण सँग सँग ...रसिक हो तुम पगली सी ।तृषित मयुर पर आ बरसोगी ...आओगी कभी दौड़ती ..खिलकर डोल (फूल का झूला) हो जाने को ... उन्माद से फिर थक न सकोगी नित्य और और प्रफुल्लता ही सँग होगी वहाँ... प्रफुल्ल जोरि जो सँग... । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । आ रही वह आने वाली तेरी सुगन्ध सखियों की सखी । सुरभित सँगम ।

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