भजन पथ , तृषित
भजन पथ
जिस प्रकार निर्मल साधक के लिये प्रपञ्च सँग से भजन हानि होती है वैसे ही प्रपञ्च को साधकों के सँग से प्रपञ्च की हानि होती है । और भजन की हानि आंतरिक हानि है उसे भजनानन्दी ही समझते है । समस्त शक्तियों और क्षमताओं की एकता से ही अनुरागित भजन प्रकट होता है ...राग की एक गति और दिशा होवें । विधान की लीला का अनुभव कीजिये वह कहता है कि जीवन भजनमय हुआ या नहीं । अगर जीवन मे एकांतिक अवसर है तो क्षमताओं को एक राग की अनुरागिनी भजन प्रणाली हेतु ही वह एकांतिक स्थिति हुई है । बहुत बार हम एकांत का सदुपयोग नहीं करते , मैं भी नहीं कर पाता , व्यर्थ चिन्तनों से । वह एकांत मिला क्यों ??? भजनार्थ । भाव-साधनार्थ । जब संसार किसी को छोड़ देता है तब वह कृपा रूपी एकांतिक काल भजन संगठन में होना चाहिये । परन्तु बहुत बार भूकम्प आने पर भी जीवन प्रपञ्च की ही लालसा करता है , भजन की नहीं । भजनानन्दी तो अपने जगत को भी भजन सिद्ध कर देते है जिससे भीतर बाहर सहजता से भजन धारा बहती है । अथवा भजनानन्दी अपना जगत ही भीतर भावजगत पाते है नित एकांतिक । परन्तु आप यह लेख पढ़ रहे है तो सिद्ध है एकांतिकता का सरस प्रवाह आपके जीवन मे नहीं है , प्रपञ्च की कीच में एक मछली जो सरस् तरल खोज रही है । भजनानन्दी की एक गंभीर समस्या है प्रपञ्च का अभिनय क्योंकि शरणागति उपरांत प्रपञ्च अभाव से अभिनय कला छूट जाती और जीवन कला उदय होती है , संसारी तो फॉर्मलटीज निभा लेता है , भजनानन्दी यह फॉर्मलटीज नहीं जानता तब क्योंकि प्रति स्थिति वह जीवंत कोई श्रृंगार अथवा कोई सेवा है श्रीप्रभु की । अतः सम्पूर्ण प्रपञ्च ही वहाँ साध्य-साधना से अभिन्न हो साधक की यात्रा को ही उजागर करते है । वहाँ प्रपञ्च साधना के मार्ग बन कर प्रकट होता है और मूल में वह मंगलमय विधान होकर वास्तविक जीवन का उद्घाटन करता है । इसलिये सन्त विष्टा कीट तक की तृप्ति की चिंता करते है क्योंकि वह जीवंत होते है ...चैतन्य । भोगी यहाँ विपरीत होता है वह निज रक्त सम्बन्धों सँग भी सहृदयता नहीं रखता जबकि कहने को वह है संसारी । आपको सारे ब्रह्मांड में कोई संसारी स्वार्थ से परे अपनी संतान तक के सुख के लिये जीते हुए न मिलेंगे ...सब अपने गढ्ढे खोद रहे , मैं के पोषण में । भजनानन्दी संतान का भजन छुड़ाने वाले संसारी भला किस ओर जा रहे है , चिन्तन कीजिये । और इतना ही नहीं संतान भी माता-पिता के भजन बाधक होते है , बहुत बार । मूल में यह सब बाहरी बाधा ही भजन को लालसा से भर देती है । परन्तु अगर किसी भजनानन्दी को निज रक्त सम्बन्ध में भजन का सुख न मिले तो वह क्यों अन्यों के आश्रय को स्वीकार करते । जीव है नित-आश्रित ...आश्रय ही भजन की जननी है ...बाहरी आश्रय प्रतिकूल होवे तो भीतर हृदय वास्तविक आश्रयतत्व श्रीकिशोरी पद चिन्ह में लोट कर आश्रय खोज लेता है । बाहरी प्रतिकूलताएँ चेतना को भीतर भरने की चोट भर है । भीतर का श्रृंगार कब प्रकट होगा जब बाहर अभाव होवे । आज साधक बाहर के अभाव को ही महाभाव करना चाहते यह भी विचित्र है , प्रपञ्च अच्छे - अच्छे साधक को निज दुकान की वस्तु बना लेता है । प्रपञ्च का सारा सत्कार - स्वागत आदि है उनके निज मैं का पोषण । वास्तविक दीन की वास्तविक सेवा लालसा हमारे में होती तो आज धरती जल नहीं अमृत से भीगी होती । वास्तविक दीन की दैन्यता इतनी विकसित होती कि वह भीतरी-बाहरी सब चोट सहनकर भजनमय रहता है । यह विचित्र स्थिति समझिये कोई है जो चोट खाकर कोमल है , कोई है जो चोट देकर भी कोमल नहीं । अगर आप सम्पन्न है तो एक विनय मेरा इस लेख की सेवा रूप अपने सेवको को निज हाथ से दूध-कॉफी या ज्यूस बना कर पिलावे । चाय नहीं , चाय सम्पन्न लोग गरीबों का पय मानते है , कर के देखियेगा भरा प्रपञ्च घर की घर सेवा हो जावेगा । विशाल मंदिर हो या संस्था उन्हें आवश्यकता नहीं , हां दोगे तो कोटा स्टोन को इटालियन मार्बल बना देंगे बस परन्तु इसमें धर्म को कोई लाभ नहीं । और ना ऐसा करने पर प्रपञ्च मन्दिर बनता है अपितु मन्दिर प्रपञ्च हो जाते है । नेत्र चाहिए वास्तविकता के प्यासे वह प्रपञ्च को निकुंज से महका सकते है ... और वहीँ नेत्र रसिकों द्वारा प्रदत्त नित लीलात्मक निकुंजों को संसारी भोग समझ लेते है । नेत्र ही समर्थ करता भजन तब सर्व प्राकृत अप्राकृत हो उठता है । भजन जीवन रहते नित्यधाम वास रूपी परम सुख है और यह सुख सभी को प्राप्त है और हम सभी इस प्राप्त निधि को आप छोड़े बैठे है । जीवन मे किसी काल मे वास्तविक विश्राम अथवा वास्तविक सन्तोष अथवा वास्तविक जीवन अनुभव होगा तो वह भजन-काल में ही सिद्ध होगा (यहाँ पूरे लेख में भजन से तात्पर्य रसिक रीति से प्राप्त नामाश्रय है , ना कि उछल कूद कोलाहल भरे व्यर्थ खर्चीले रात्रि जागरण से ) भजन को संसारी श्रीभगवान सँग अपना पाखण्ड दिखावा आदान-प्रदान करना भर समझते है जबकि भजन की गंगा और यमुना वह दिव्य समर्थ सुख है जो असमर्थ स्थितियों में सम्पूर्ण निज प्रयासों से सर्वदा अप्राप्य निधि है ....भजन उनकी (श्रीयुगल की) गोद है ...लालसा भर पुकारते ही वह अपना आश्रय देकर इस भजन स्थिति में अपना सम्पूर्ण जीवन सुख ही भजनानंदी से खोल देते है ...भजन श्रीप्रभु का निज संवाद प्रदाता और सिद्धरसिक द्वारा प्राप्त फल है । भजन ही जीवन है और वही मंगलमय विधान रच रहा है भले घण्टों हम मूर्छित से सो रहे हो ...वह विधान भजन काल की ही संरचना करता है । विधान द्वारा कभी भजनकाल की हानि नहीं होती । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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