रसिक बिना कोऊँ समझी सके न , तृषित

रसिक बिना कोऊँ समझी सके न

फूल की वार्ता फूल जानते है । अन्य के लिये वह बस हरक़तें भर होती ।
शिशु के उन्माद को समझने हेतु भी शिशु होना होता है ।
ऐसे ही प्रेम के विस्मरण रति उन्माद का गोता । अनिवर्चनीय । परन्तु वह वाचित हो तब भी कहा जावेगा बौराई हुई लटपटी बोली । उस माद्य स्थिति का अनुभव सम व्यसन पर स्थिर भावुक को होगा । यह लटपटी बौराई खुशबुओं से वह चुन लेती अनन्त कुँजन में खिलती रसप्रीत की लाड़ भरी खेलियाँ तृषित... ...!!! वह बौरता कहती और ...और ...और ! और सत्य में यहीं तो जीवनदान रूपी आशीष देती वह बौराई सँग निहारती बतियाओं को प्यारी बाँवरिया । परन्तु समझ वाले के लिये उन्हीं वार्ताओं से पीड़ा भरी कहीं कोई स्थिति नहीं । कोई हज़ार में ...कोई एक बौराना चाहता ... वहीँ समझ पाता वह लटपटी बोली

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