भगवत प्रेम-प्रचार , तृषित
भगवत प्रेम-प्रचार
भगवत रस प्रचार बाहर द्वारा कराई जाने वाली अभिव्यक्ति है नहीं । आंतरिक अनुभूति है । यह श्रीप्रभु ही सम्पादित करते है ।
वह जबरन प्रेमी के जीवन को सर्व के लिये रचते है । उस प्रेमी का हुलास - उन्माद - आवेश स्वभाविक ही आगे चरित्र हो जगत के लिये आदर्श हो जाता ।
प्रेमी के पैर के छाले । नैनो के अश्रु । हृदय का विषाद स्वयं भविष्य में गहनतम वास्तविक प्रचार ह्यो जाता है । यह सब कोई क्रिएटेड प्रचार नहीं होता । स्वभाविक गाढ़ आनन्द-वेदना की मिलित धारायें होती जो उछलती सागर की लहरों की तरह । उन लहरों वह उन्माद कोई मैन्युअल प्रोजेक्ट नहीं होता ।
उदाहरण जैसे श्रीभरत जू । उन्हें राम प्रेम का प्रचार न करना हुआ । डूब गए बस । मूर्ति हो गए राम प्रेम की । और वही सोपान तुलसीदास द्वारा प्रभु उजागर करा दिए । भरत जी को पर्चे नहीं बाँटने पड़े प्रचार हेतु ।
साधनों का प्रचार सर्वहित मयी नहीं । अपना अपने लिये किया गया नाम भजन भी प्रचार है । उससे भी प्राकृतिक सौंदय भीतर बाहर उछलता है । कुल मिलाकर अपने डूब जाना है । किसी को कोई व्यसन देने के लिये लिये अपने ही को मदिरा होना होता है । अपने रस भाव मे अभिसरित होने से स्वभाविक प्रचार कभी घटित होता है ।
आप सभी ने श्रीराधाबाबा का नाम सुना ही होगा । श्रीभाई जी ने स्वयं विशाल प्रचार केंद्र होकर उन्हें छिपे हुए भजनार्थ सहज सजग होने को कहा । वह जो प्रवचन देते वह भी छोड़ दिये उन्होंने और उनकी वहीं एकांतिक महाभावित स्थिति आज गाढ़ रस लोभियों के लिये संजीवनी हो गई है ।
बाहरी प्रचार भी वहीँ ही सच्चा होगा जहाँ गाढ़ रसिक भक्त-गुरु अथवा श्रीहरि ही ऐसा करने को कहें । श्रीहरि का कथन तो अनुभवात्मक होगा वह ऐसा कारण होगा कि बाहर उजागर ही ना होगा ।
मधुर रस तो मधु से भी मधु है और वह मधु पुष्पों में होकर भी आंदोलित होता है लोभी मक्खियों के आन्दोलन से । भगवत प्रेम रूपी मधु की मक्खियाँ भी अपना आधार भगवत्प्रेम की सेवा बना लेंवे तो वह इन मधुमक्खियों की तरह मुक्त नहीं हो सकती इस सेवा से ।
वह मक्खियों का समूह ही शहद के छत्ते का पता है । इस मधु रस की मक्खी होना भर है । वह मक्खी ही शहद के छत्ते का पता भी है यह उसे पता भी नहीं ।
जिसके जीवन मे भगवत रस माधुर्य का व्यसन नहीं वह कैसे निर्मल प्रचार करेगा ???
और जिसके जीवन मे यह व्यसन ह्यो वह क्यों और कैसे करेगा , यह भी चिंतनीय नहीं है ....
लीलाधारी की लीला ही प्रकट होती इस व्यसनी के मदियता में । शेष तो वह प्रपञ्च को तथास्तु कह रहे । उनके आंतरिक आह्लाद का पोषक हित जीवन ही तब प्रकट होता है जब यह प्रीति का व्यसन जीवन होकर बहने लगे ।
इस प्रेम का रँग ही हुलास है ...उन्मादित सागर की उछाल है , यही नित उत्सव रूपी जीवन ही सर्व को रस सार करने को प्रचार है ।
छलकता वह है जो पहले अपने मे भरा हो । आज स्वयं में सन्सार की लालसा और बाहर कहने भर को प्रचार को प्रचार कहा जा रहा है ।
धर्म किसी किसान के खेत को जोतता वह बैल है जिसे लज्जाधारी नहीं , सेवक होकर पोषक होना होता है ...मूल में यह धर्म जीव का पोषक तत्व है तब वह स्वयं की रक्षा में भी समर्थ है ही जो अपनी क्षमताओं से ही जीव को तदगत भाव देता है । जीव बैल की सेवा के लिये स्वयं को हल में नहीं जोत सकता है । हां वह बैल का शोषण कह कर हल जोतना छोड़ , अत्याधुनिक हो ...मशीनी खेती कर लें पर उससे धर्म को आराम नहीं मिलता बल्कि वह बूचड़खाने में खड़ा होता है ....अतः प्रचार धर्म इतना सहज है कि तनिक भी प्रकृति के प्राकृतिक सौन्दर्य से अर्थात मंगलमय विधान से जीव छेड़छाड़ करें तो परिणाम में धर्म अदृश्य होने लगता है ।
वही अदृश्य स्वरूप सदृश्य होता है विधान को जीवन मे स्वीकार करने पर ।
मैंने उत्सवों के पर्चे भी बाँटे है , यहाँ भी कई अनुभव लिए है जो स्वयं को प्रचारक कहते है और जो देह को वैष्णव की तरह रख भी सकते है उन्होंने वह पर्चा नहीं छुआ ...जो प्रचारक होकर प्रचार का सम्मान ना कर घृणा करें वह कैसे सरसत्व श्रीप्रभु के निर्मल प्रेम का प्रचार कर सकते है जबकि उस दिवस वहाँ एक एक क्षण ऐसा था जैसे मैं कारावास का कैदी परन्तु वहाँ क्षणिक काल मे इतने अनुभव और इतना श्रीहरि से आत्मीय राग प्रबल हुई कि मैं वहाँ खड़ा ना होता तो महीनों में वह वेदना और वह राग अनुभवित नहीं होते ...
तो सत्य में प्रचार का सच्चा अर्थ है हो रहे सरस् प्रचार को होने दिया जावे ।
प्रचार में प्रपञ्च की कितनी और भगवदीय कितनी रसास्वदनीय वस्तु इससे प्रचार की सत्यता अनुभव हो सकती है । एयरकंडीशनर में मुझे तो नींद आती है या सर्दी लगती है या बड़ा आराम होता है ,कोई दैहिक सुखों सँग सत्य का सँग करना चाहे तो यह प्रपञ्च की महिमा हुई अर्थात योगनिद्रा रूपी माया की । श्रीहरि का प्रेम आपको बड़े बड़े शहरों से निकाल कर बीहड़ों में ले जाकर रसभुत परमोच्च सुख दे सकता है ।
एक और बात , असंख्य भक्त चरित्र है प्रकट है ...मैं देखता हूँ , साधक सब को सुन-पढ़ लेते है जबकि किन्हीं रसिक के जीवन के किसी सिद्धान्त को पल भर ज्जि नहीं सकते ....ना ही जीना चाहते है । वह चरित्र का उद्घाटन ही स्वयं श्री हरि का निज प्रचार है । वरना क्यों लाते वह निज प्रेमियों का यह प्रेम जीवन रूपी भोग सर्व के सन्मुख । भक्त-भक्ति के प्रति उदार हृदय होना ही श्रीहरि के प्रेम प्रस्ताव का समर्थक यथेष्ठ प्रचार हो सकता है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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