कुँज लीला , तृषित

कुँज-लीला

महावृन्दावन में जो सब क्रीड़ावन विद्यमान है , उनमें से प्रत्येक में नाना प्रकार के कुँज विराजित है । अन्तरंग भावुक भक्तगणों की तृप्ति के लिये श्री राधागोविन्द की कुंजलीला इन सब कुंजो में प्रकट उत्सवित होती है । सभी कुँज स्वतः सिद्ध एवं स्वयं में विश्रान्त है । अर्थात युगल सुखार्थ सर्व विलास सिद्ध सभी कुँज है । किसी विशिष्ट कुँज लीला में अन्य कुँज के साथ सम्पर्क नही रहता , परन्तु सभी कुंजों में परस्पर सम्बन्ध रूप में भी रसभाव दिव्य लीला होती है । बाह्य दृष्टि से एक कुँज के साथ दूसरे किसी कुँज का कोई सूत्र सम्पर्क दिखता । तब भी प्रत्येक कुँज के साथ प्रत्येक कुँज का गुप्त सम्बन्ध भी है और अत्यन्त गुप्त संचरण मार्ग (एक कुँज से दूसरे कुँज भीतर -भीतर छिपे मार्ग) भी है । एक एक वन भावानुणालिनी प्रकृति का एक एक प्रतीक है । भाव अनन्त होने से केलि-काननों की वास्तविक संख्या भी अनन्त है । ऐसा ही पौराणिक स्वरूप में अनन्त योजन , अनन्त सरोवर , उद्यान आदि सँग , अनन्त परिकरियों से सेवित प्रेम युगल रस का चेष्टिक वर्णन है । विभन्न कुँजों में विभिन्न माधुर्य रस का आस्वादन सेवा श्रीयुगल को कराई जाती है । इस आस्वादन की पृथकता हेतु ही भाव पृथकता है , सेवा भावना में नित्य नवीनता ही ना हो , सम्पूर्ण पुष्टि पर भी पिपासा क्यों विकसित हो । भाव का अर्थ जड़ भाव नहीं है , यह भाव स्वभाव सिद्ध भाव है , भाव राज्य में जीव भावस्वरूप सिद्धि सँग ही स्थिर होता है , भाव स्थिरता किन्हीं निर्मल पिपासुओं की हो पाती है , भाव कृपा अनुभूत होने से ... जीव का चिंतनीय भाव और भगवत प्रदत भाव जब मूल स्वभाविक भाव ही रह जाता है तब वास्तविक भाव सिद्धि होती है । अर्थात हम अपना भाव बना लेते है ,वह स्वभाविक भाव स्फुरण ही कर सकते है अब हम अपने भाव से वह जो प्रकट कर रहे उस भाव को अनुभूत कर सकें उसमें प्रवेश कर सकें तब भाव प्राप्ति होती है , भाव पथ पर भाव प्राप्ति प्रथम सोपान है ... महाभाव सम्बन्धार्थ-- तृषित । एक और बात कुछ कुँज उपासक निज कुँज का त्याग नही कर सकते । परंतु युगल सुखार्थ सेवा है तो कुँज का बाह्य त्याग किये बिना आंतरिक सेवार्थ कुँज के कुँज से गुप्त मार्ग से भावुक भावसिद्ध भीतर से ही सभी कुंजो में प्रवेश पा सकते है । भाव स्थिति युगल सुख है तो अनन्त मार्ग अपनी धारा धमनियों से सर्वदा एक ही रहता है । जयजयश्रीश्यामाश्याम जी

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