विदग्धे , तृषित

नागरी जू ,सम्पुर्ण प्रीति कलाओं की कोमल मर्मस्थली ...मोहन-विमोहनी
(( विदग्धता होती आंतरिक दग्धता । प्रति रोम आंतरिक दाह । कैसा दाह प्रियतम सुख पोषणार्थ जो अभिलाषा अपने प्राणों के सुख के लिये उससे उठती यह दाह । इससे मुक्त नहीं हो सकती वह , बढ़ती रहती यह पीड़ा । क्योंकि मनहर की प्रिया का प्रेम सर्वोत्तम अद्भुत मूल सँजीवनि है । यही सँजीवनि विदग्ध होती माधव के मधुत्व की नित नव अनुराग  नव केलि लालसा में । सुख देना कभी पूर्ण होता नहीं और यह झरना जहाँ से बहता वह आंतरिक सन्ताप और लालसा करता सो दग्ध हो वह उस दग्ध से प्राप्त प्रियतम सुख में खो कर उसी नित दाह को भूले रहती विदग्ध माधवे ।  ...माधव रूपी पुष्प के सन्तोष को खोजती यह विदग्धे ।
विदग्धता की दात्री भी वही । मनहर प्रियतम को विदग्धता मिलती कहाँ से । स्वयं विदग्ध , विदग्ध रस दान करती निज प्रियतम को रसिकशेखर करने की घनिभूत विदग्धा ।
प्रियतम की विदग्धता बढ़ती क्योंकि प्राणदायिनी प्राणपोषण को विदग्ध । इस लीला में मनहर की विदग्धता मिटाने को वह स्वयं करुणा दात्री पान कर लेती मोहन के सम्पूर्ण श्रीअंगो का विदग्धत्व
प्रियतम को विदग्ध रति सहज देकर वही विदग्धता पी लेना प्रियतम को रसभुत कर देता परन्तु यह आह्लादिके नित विद्गधे है ।))

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