विस्मृति , तृषित

प्रीति नित्य सुहागित सेज है , जिस पर नित्य विलासमय रूप और प्रेम । माधुर्या और मनमोहना  । यहाँ विस्मरण सम्भव नहीं अतः यहाँ पुकारा जाता कि विस्मृत ना करो । भूलो नहीं मौहे । जाओ नहीं कहीं सँग से । यह विस्मरण सिद्ध नहीं पर इसी का भय प्रीति की मिलनमयी स्वप्न रति होकर ...वैचित्य स्थिति विस्मरण को मिलन में अनुभव कर विस्मृति को रति मान लेता है क्योंकि यहीं विस्मरण रति प्रीति में असम्भवनिय स्थिति है ।
अतः प्रीति की विस्मृति रति होती ।
और यह रति प्रीति के लिये असिद्ध है । नित वृत्ति में नित श्रृंगार वह अपनी मनहर कृत्ति का करती है । प्रियतम की विस्मृति मुक्ति के लिये बाधक है , अतः यहीं विस्मृति रुपि मुक्ति श्रीप्रीति को प्राप्य नहीं । और समस्त तृष्णाएँ मुक्त होने के लिये प्रकट होती है । बिन प्रकट हुए उनसे मुक्त नहीं हुआ जा सकता । अतः वह मुक्ति का अनुभव कर ही नहीं सकती क्योंकि वहीं स्मृति मात्र नित्य अनुराग में प्रियतम से वैराग्य यहाँ असिद्ध होता है तभी अनुरागित फूल पतों की लता से उदय होता है । तृषित

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