एकनिष्ठ स्पृहा , तृषित

एकनिष्ठ स्पृहा -
भगवत् प्राप्ति का यह मुख्य उपाय है । वास्तविक भाव भगवान की कृपा से ही होता है और वह अप्राकृत है , पर एकनिष्ठ स्पृहा भाव का प्रकृत रूप है । अर्थात् प्रकट रूप है ।
फिर भी जगत में एकनिष्ठ स्पृहा का अभाव ही है ।
जगत में भगवत् प्राप्ति में मुख्य कारण भगवान का हो जाना नहीँ होकर ,  भगवान का पद पाना और , भगवत् स्वरूप होना , अर्थात् ऐश्वर्य और मोक्ष की आकांक्षा बने रहना ही है ।
भावुक भक्त भगवान से कोई आकांक्षा नहीँ रखता , केवल वह भगवान का हो जाना चाहता है ।
भाव इतना दुर्लभ है कि मुक्त होना सरल है पर सब तृष्णाओं को भूल भाव पाना मुक्त साधकों का भी लक्ष्य रहता है ।
खोजते-खोजते किन्हीं को भाव प्रगट होता है , सभी को नहीँ ।
यहाँ तक भजनशील भक्त को भी भगवान सहज भाव नहीँ देते है ।
जिनके हृदय में भोग और मुक्ति आदि आकांक्षा वर्त्तमान रहे उनके हृदय में भाव प्रकट नहीँ होता ।
इस तरह जो भाव प्रतीत होता है वह केवल भाव की छायामात्र है , आभास भर , वह प्रकृत भाव भी नहीँ है ।
पर यह आभास भी लाभप्रद है , अगर इससे स्व स्थिति के विकास की भावना को बल मिलें , अपनी स्थिति का बोध हो और आभास में रहने से ही कभी किन्हीं परम् रसिक या भावुक सन्त की दृष्टि और कृपा हो जावें । तब शेष कमियाँ हट सकती है पर इसके लिये स्व विकास की भावना हो , जबकि अपनी पूर्णता की ही भावना रहती है , अग्रिम स्थिति की चाह नहीँ होती । भोग की चाह ही शुद्ध भाव की बाधक है । भावोदय के सभी लक्षण दिखने पर भी उनके मूल कारण का पता नहीँ चल पाता क्योंकि भावाभास अवस्था में भी यह सब कारण हो सकते है ।
तब स्पृहा रूप मुख्य लक्षण द्वारा भाव की ठीक ठीक अवस्था का पता चलता है ।
जब भोगी या मोक्षार्थी भक्त दैव योग से (कृपा से) सद्भक्त का संग करें तब प्रतिबिम्ब रूपी भाव होता है , वह स्थिर नहीँ रहता चन्द्रमा के प्रकाश की तरह घटता-बढ़ता है ।
इससे नीचे छाया भाव आभास है वह हिलता अधिक है । कौतुहल बना रहता है इस अवस्था में । इस अवस्था में जीव के दुःख तो नष्ट हो जाते है पर आभास होने से तीव्र सच्ची लालसा न होने से भगवत्प्रेम और भगवत् संग नहीँ मिल सकता । सच्ची प्यास बिन जल मधुर नहीँ लगता । यहीँ एक निष्ठ स्पृहा है , "तृषा" है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी

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