हे प्रीतिके रसलुभावनी वृन्दरसिके , तृषित
*हे प्रीतिके रसलुभावनी वृन्दरसिके*
जय हो प्यारी , जय हो प्यारी ....प्यारी जू । प्यारी आपकी महिमामृत का क्या गान .... वह तो मनहर के मनहरित हिय में भी प्रकट नहीं हो पाता । प्यारी जू आपके प्रेमामृत भावामृत सिन्धु का क्षणार्द्ध अनुभव ही सम्पूर्ण कालीमाओं को हटा परमोज्ज्ज्वल शीतल कर देता है । ऐसा उज्ज्वल की उस हृदय की उज्ज्वलता फिर कहीं कोई ठौर पा ही कैसे सकती है । मेरा हिय उस उज्जवलित गौर प्रीति बिन्दु अमृत से क्या हट सकें फिर । अन्यत्र कोई यात्रा आपकी इस रूप उज्ज्वलता से है तो वह कृष्ण हो जाने की । भवरोग ग्राह्य ही कहाँ इस उज्ज्वलता सँग और इस उज्ज्वलता से छूट कृष्ण रूपी भव यात्रा भी कहाँ सम्पूर्ण हमें हृदयस्थ होवें । मेरा हिय कस्तूरी सा कृष्ण कहीं हो नहीं सकता , धरा पर वहीं वस्तु कृष्ण होकर सुन्दर है परन्तु वह भी सर्व इंद्रिय आस्वादनीय नहीं । मात्र घ्राणेन्द्रिय को रसभुत कर सकती है । सर्व इंद्रिय सुख देने वाली यह कृष्णसुधा निधि तो आपके श्री हृदय की गोपनीय मणि है । और यहीं मणि सर्व इंद्रिय सुख दे सकें है आपको भी अन्यत्र आपकी किरणों को भी । परन्तु श्रीप्रिया जू आप अपनी किरणों की आंतरिक पीड़ा अभिभूत नहीं कर सकती । हे ज्योत्सने यह प्रति किरण अपनी चंद्रिका से छूट कर उसके मधुर प्रकाश की सेवा तो कर रही है परन्तु यह खोज रही है अपनी प्राणोषधि मधुरचन्द्रिके मात्र तुम्हें । हम आपकी भावकिरण अथवा मदमयी कलियों के प्रफुल्ल उत्साह से परे जो कृष्णता व्याप्त है वहीं तो आपका निज सुख है जो हमारे लिये गौर किरण छटा होने से सर्वथा अस्पर्शनिय वस्तु हो जाती है , हे प्राणप्यारी क्या इस उज्ज्वलता सँग आपके हियपराग और आपके ही रसमकरन्द के आतुर तृषित भृमर श्यामलता के रसास्वदनार्थ हमें किसी सेवा की उपादेयता देता है तो मात्र श्रीवृंदावनेश्वरी मात्र *श्रीवृन्दावन* । जहाँ हे प्रीति आपकी उज्ज्वल किरणें नित बहती यमुना जू की श्यामलता ...खिलती तमाल लताओं की श्यामलता और प्रति रेणु छिपी श्यामलता रसास्वदन कर रही होती ...हे हेमांगी , हे मधुरोज्ज्वल रसधारे , हे नवनीत साराभूत शुक्लनीलललित कुमुदिनी , हे कर्पूर की उज्ज्वलता को लज्जित करती स्वनयनों की लज्जा से गिरती मरकत रेणुके ...सहज रसराज को घनिभूत महाभाव लुटाती यह महारससुधा वृन्दावन से पृथक घनदामिनि की छटा कहीं दर्शनीय हो ही नहीं सकती , तो आपकी उज्ज्वलता का छिटका लिए कहीं फिर नहीं सकता कोई , ना आपकी हिय की श्यामलता को आपके सेवार्थ इन कुँजन से पृथक कहीं लाया ही जा सकता है । हे उज्जवलनीलमणि , मेरे आधार ...मेरे अस्तित्व में अगर ना उज्ज्वलता है , ना ही घनिभूत वह घनकालिमा जो केवल प्यारी रूपी वृंदधरा पर झरती हो ...तो व्यर्थ परिश्रम क्यों ... ....क्या दण्डनीय यह जीवन कारावास से छुटा नहीं जा सकता ....क्या कारावास में कोई तृषित सुख नहीं प्रकट होगा जो सर्व बन्धन विच्छेद कर पहुँच जावे वृन्दावनेश्वरी श्रीचरण रेणुका में लौटने को । विस्मृत कारावासी तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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