लेन-देन , तृषित

लेन-देन

ईश्वर के जगत स्वरूप को जीव दे सकता है ।
जगत के ईश्वर स्वरूप (जगदीश्वर) से जीव केवल ले सकता है ।
देना , यह भाव ही प्रेम है । लेना न हो । केवल देना ।
जगत रूपी ईश्वर से जीव प्रेममय हो दे सकता है ।
परन्तु जगत में सब लेना चाहते है , देना यहाँ है ही नहीं ।
देने का ही स्वरूप दाता ईश्वर है ।
ईश्वर रूप भी उन्हें दिया सकता है परन्तु तब वह ही जगत रूप हो तब ही । जगत और ईश्वर का द्वेत भी हमारे ही भीतर है ।
जगत की ही चाह से जगत होकर वह है तो जगत की ही सेवा से वह होकर वही ही जगत हो जाएं ।
जगत चाह कर ईश्वर की सेवा सम्भव ही नहीं । प्रियतम को चाह कर ही प्रियतम की सेवा सम्भव है । परन्तु वह लेते नहीं तब दिया कैसे जाएं ।
यहाँ लेना और देना भी पृथक है , वह एक हो । ... वह प्रेम प्रदाता , प्रेम वह नित्य प्रवाहित करते उनके प्रेम से ही उन्हें प्रेममय प्रियतम स्वीकार प्रियतम को ही जगत स्वीकार प्रियतम की सेवा हो सकती है ।
सकाम उपासक जगत का सेवक है और निष्काम उपासक जगदीश्वर का सेवक । क्योंकि प्रेम  ना माँगने पर ही प्राप्त होता है । जो प्रेम भी उनसे मांगता है उसके लिये जगत और जगतपति में भेद है , जगतपति लेते नहीं तो भेद कर कारण वहाँ जगत रूप उनका प्रेम प्राप्त होगा जिसकी सेवा की नहीं जाएगी । अर्थात यह अज्ञान हो गया । प्राप्त प्रेम की सेवा का तिरस्कार । सकाम उपासक भी जगत माँग लेता है पर जगत की सेवा नहीं करता । क्योंकि जगत नाम ही लेने की अवस्था का है । जगत दे नहीं सकता क्योंकि जगत विकास की और नहीँ विसर्ग (विनाश) की और ही जा रहा होता है । तो जगत उनका ही लेने का स्वरूप है । जहाँ दिया नहीं जाता केवल लिया ही जाता । और श्री प्रियतम लेते ही नहीं केवल देते ही देते । लेते ही वह जगत हो जाते है ।
जिसकी दृष्टि केवल प्रियतम पर केंद्रित हो और उनका प्रेम वहाँ खिलने लगें तब वह अपना संसार खोजता है प्रियतम में ही और उन्हें संसार स्वीकारते ही बाह्य संसार छूटने लगता है । संसार से छूट नहीं सकते क्योंकि संसार को देना आता ही नहीं है , वह स्वयं को कैसे देगा ? परन्तु भगवान में संसार स्वीकारते ही वह सर्वत्र फैली चेतना और भावना की ऊर्जा अर्थात प्रेममय हो स्वयं ही जीव का संसार हो जाते है और उनका संसार होने पर ही यह कथन होता है कि मैं प्रेमी का सर्वस्व हर लेता हूँ । हरण जब ही सम्भव उन द्वारा जब उन्हें संसार स्वीकारा जावे । क्योंकि ईश्वर रहते हुये वह लेने वाले है ही नहीं देने ही देने वाले तो उनके ही प्रेम दान से उनमें सर्वस्व पाकर शेष उनमें ही समाया हुआ स्वीकार कर जीव अनन्य हो पाता है । अब यहाँ तक तो जीव ही इच्छा कर रहा । इच्छा शुन्य स्थिति में प्रेम की वर्षा में भीग पुनः प्रियतम में वह इच्छा कर ही उन्हें कुछ दे सकता है । और ईश्वर रहते वह लेते नहीं परन्तु प्रियतम शब्द सम्पूर्ण जगत को एक स्वरूप में समेट प्रेम करने का है । प्रियतम ... ... ! अनन्य वाचक शब्द है यह । प्रियतम अर्थात ईश्वर और जगत दो रहे ही नहीं । दोनों का संगम है प्रियतम । ईश्वर लेते नही , जगत देता नही । जगत लेता ही लेता है । तब जीव इच्छा करता देने की क्या देने की अपने प्रियतम रूपी जगत को सेवा । सेवा वह जगत होकर ही स्वीकारते । ईश्वर सर्व रूप दे ही रहे तो लेवे कैसे ? उनकी सेवा जगत रूप ही की जा सकती क्योंकि जगत ले ही रहा ।
परन्तु जब जगत और जगतपति एक प्रियतम हो जावे तब लीजिये सेवा की भिक्षा । प्रियतम सेवा की भिक्षा । वहीं ईश्वर देंगे वही सेवा का सामर्थ्य और सेवा का अवसर । और वही ही जगत है तो लेंगे सेवा । जगत ईश्वर से तनिक भी भिन्न है हृदय में तो जहाँ जगत उसी रूप सेवा स्वीकार करेंगे ।
प्रियतम रूप ईश्वर और जगत के प्रेम को समेट कर उनकी सेवा भिक्षा मांग उनके सेवा देने पर सेवा की जा सकती क्योंकि वही जगत है तब । रसिकों ने सर्व रूप उन्हें ही जगत और ईश्वर की संधि से सम्पूर्ण मधुता को मिलाकर प्रियतम पुकार सेवा प्राप्त कर सेवा सिद्ध की । जिसे जगत रूपी ईश्वर ने लिया । क्योंकि जगत लेता है । ईश्वर नहीं ले सकते । और प्रियतम लेते भी हमसे देते भी हमें । सेवा लेते है और प्रेम देते है । बिना प्रियतम हुए जगत रूप सेवा चाहते पर जीव जगतमय होने से देना नही सोच सकता देना ईश्वर की शक्ति और यह देना ईश्वर से प्रियतम रूप सम्मिलन होने पर ही हृदय में प्रकट होता है । जब तक जीव के हृदय में देना प्रकट न हो उसे प्रेम स्पर्श नहीं हुआ । और भुक्ति - मुक्ति क्या भगवत दर्शन लालसा तक जीव लेने ही लेने को आतुर । देना ही सेवा है और सेवा वास्तविकता में हरि की वृत्ति है । अपने कर्त्तव्य और नित वैभव विलास को वह सेवा ही कहते सहृदय सदा स्वीकारते ... तथास्तु । प्रियतम निज हृदय सेवा दान करो । श्रीप्रियाचरण रज सेवा । प्रियतम हृदयस्थ अनन्त प्रेमस्वरूपा प्रेमदात्री शक्ति श्री श्यामाचरणरज ... इस रज अणु में सम्पूर्ण श्रीप्रियाजु का प्रेमाणु निहित है । अनन्यता , प्रियतम सुख , प्रियतमाश्रया प्रेमाणु जिस रज अणु की अधीश्वरी सुधा निधि माधुर्य स्वरूपा श्री स्वयं है । नित्य-सेवातुर-सेवामयी-सेवा । तृषित । जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।

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