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Showing posts from 2020

स्पंदन , तृषित

स्पंदन अन्तःकरण स्पर्शित करुण प्रभा रस स्पंदन  आवेशित चेतना तापित भाव-घर्षण स्पंदन  प्रीतिरमण शरदचंन्द्राभरण स्पर्शित करुणप्रभा रस अन्तर्भरण स्पंदन  भावेशित विशुद्धसत्व प्राणातुर हिरण्यतपित तृषितभाव-घर्षण स्पंदन   स्थूल वेदी पर कुमुदीनियों का चरण ताल स्पर्शित स्पंदन अरविन्द रागिनी सजनी उरागमन नैन झरित अश्रु स्पंदन  बासंती वीणा पर फूहरित रजकन्द सौरभ मधुर पुलकित शरदिय स्पंदन  हरित मन हरिणी मनहर सजिनी अधर कम्पित पद सेवनातुर स्पंदन  सुरभित मन्द सुरम्य तव अंगिनी झरित रव मधुर सुगन्धित स्पंदन प्रीतिउन्मादिनी उररागिनी हियममप्राणप्रिया अधर तृषा दायिनी स्पंदन  आलिंगित नित्या तरंगिनि मधुरा प्रेमातुर नितराग नव दायिनी स्पंदन अधरन झरित मधु ममहिय भाव वर्षिणी चुम्बित ममप्राण स्पंदन  हियवसित सुधानिधि हितवासिनी नवरागित नवपँखुर स्पंदन मृदु-लता मधुझरपद्मिनी प्रफुल्लनयन तृषातुर कोकिल स्पंदन  नीलपद्म पँखुरहंसिनी राजित चरण नवानुरागित भावांकुर जावक स्पंदन रंगित रँगीले हँसिले हँस भावन झर-झर निरखनी कुमुदिनी मुदित स्पंदन  मंजुल गौरता श्यामल कालिन्दी वत्स...

श्री श्यामाश्याम नाम माधुर्य , तृषित

श्रीयुगल श्रीश्यामाश्याम के प्रत्येक नाम के प्रत्येक वर्ण (अक्षर) मात्र में ही नहीं उस नाम के लिये उठे लालसा रूपी रव-रव (स्वर हेतू वायु का स्पंदन) में श्री रस रीतियाँ दोनों को पूर्ण परन्तु नव-नव भाव छवियों में पूर्ण पीती पिलाती है । रसिली रीतियों में प्रकट बहुत से श्रीनाम में इतनी अभेदता है कि वहाँ भोग - परिधान  -श्रृंगार और सम्बोधन से भी द्वेत नहीं माना गया है । इन वाणियों का एक-एक अक्षर पूर्ण-पूर्ण श्रीयुगल में मिलित होकर उन्हें सुख देकर पूर्ण रस श्री मिलित श्रीस्वरूप के महाभाव में भीगकर और उन्मादित होता हुआ रसिकों का हृदय नित्य सींचता रहा है । रस ब्रह्म - अक्षर ब्रह्म - नाद ब्रह्म यहाँ अवसर खोजते है रव रव में भरित लास्य श्रृंगारित मिलित वपु के उत्स को पुनः पुनः पीने का । इन नामाक्षरों मे सर्वदा अभिसार और महाभाव लास्यमय यूँ बिहरते है कि अभी कोई अक्षर महाभावित था तो अब वह अभिसार बन रहा है और जो अभिसार था वह महाभाव हो रहा है क्योंकि यहाँ मिलन नित्य सूक्ष्मतम तरँगित - उमङ्गित है ।  वाणियों में वर्णित ललित कौतुकों (लीलाओं) में आन्दोलित हुए श्री नामों में नवीन नवीन उत्सवित भाव मु...

दास ...सहज या अभ्यास , तृषित

*दास ...सहज या अभ्यास* जो अनुगत हो - अनुज्ञा पालन कर सेवा देना ही जीवन समझें वह दास होने के अधिकारी है और जो इस सौभाग्य से दूर है यह उनकी अपनी इच्छा और स्वभाविक प्रमाद से ही हुआ है वरन हम सभी सहज नित्य दास है । और सहज दास वह है जो अपनी गुरुता विद्वता आदि का भूल कर भी अभिमण्डन नहीं करता हो । प्रत्येक सँग में वह स्वयं को रख पाता हो केवल अबोध दासानुदास । लोक में सदृश्य है कि जितना कोई भी रोग या रोगी है उससे अधिक वैद्य है अर्थात् सलाह । स्वयं को विशेष प्रकट करने की यह प्रवृत्ति शरणागत कम और शरण्य अधिक होती मिलती है । अर्थात् भीतर से गुरुता व्यक्त होना चाह रही है , जबकि सेवा भाव प्रकट अप्रकट स्थिर होना चाहिये परन्तु दर्शन में यही अनुभव बन रहा है कि कहीं न कहीं हम सभी किसी न किसी क्षेत्र में गुरु हो जाना चाहते है । यहाँ लौकिक संस्कार की कोई गति हो या पूरा जगत ही जगतगुरु बन जावें यहाँ यह अभव्यक्ति एक दास होने के नाते दासता का भारी बाधक तत्व दिखती है । आवश्यक बने और शत प्रतिशत उस विधि में श्रृंगार हो ही त्रस्त स्थिति का तब  निवेदनात्मक वह बात प्रकट बनें । वस्तुतः सहज गुरु स्वरूप नित्य ग्रा...

सहज सेवा उन्माद , तृषित

उनके लिये ही नाचोगे तो हृदय में वे ही नाचेंगे न ।  नित्य नवीन रस चाहिये उन्हें (श्रीश्यामाश्यामजू) पिलाओ ।  जीवन रस की सरस् सेवाओं को उन्होंने ही पिया तो ऐसी तृप्ति होगी कि अहा ।।। परंतु अब हमें अपनी चिंता है । अपनी तृप्ति वाञ्छा है ।   सेवक को तो केवल स्वामी के सुख की चिंता हो ।  अपने लिये जो कुछ भी चाह रहा हो , वह उनके रंग में सँग कैसे होगा ?   ललित रस है यह ...लाल सँग लाल होना ही होगा ।  *परस्पर सुख सेवा आदि में समा जाने  की इन सहज श्रृंगारिणी अभिलाषाओं का नाम ही लीला है ।*  और इस नित्य प्राण हेतु होती लीला से अपना पृथक् सुख या जीवन या रस निकालने की स्थिति ही अहम् रूपी विकार के प्रभाव से ही जगत (प्राकृत) अनुभव है । युगल तृषित ।  बालक के रूदन पर जिस तरह मैया सो नही सकती वैसे ही चेतना को अपने नित्य प्रेमास्पद के विश्राम से ही विश्राम प्राप्त होता है ...उन्हें सुख देने से सहज सुख मिलता है ...उन्हें रस देने से रस मिलता है ...उनकी सेवा होने से ही उनके स्वामी होने का अनुभव और अपनी सेवाओं का अभाव अनुभव होता है ...उनकी ही परस्पर सुख लालस...

कटि तट पट राखैं नहीं,गूढ़ अंग रति चाव , तृषित

*कटि तट पट राखैं नहीं,गूढ़ अंग रति चाव ।* *समर केलि आरति दोऊ ,सब भोगिन के राव।।* प्राणी-प्राणी रति लालसा में है और रति की भोग लालसा होनी चाहिये रति सेवा लालसा अपने श्रीइष्ट चरणों में । श्रीइष्ट चरणों में शरणागत किसी भाव सुमन को श्रीइष्ट निज रति निवेदन हेतु अपना पा उठा लेते है तब प्रकट होती है निज इष्ट की उभय रूपी रति लालसा । एक ही माधुरी रसार्थ द्वेत रूप मदिरा होकर परस्परित होती है । रति लोभी इस जगत के हम प्राणिन को रति की प्राथमिक अनिवार्यता का ही अनुभव नहीं , रति सँग हेतू इन संगियों नित्यता अनिवार्य है ...अनन्य नित्यता । अखण्ड अनन्त अपरिमित अपनापन । बाह्य परिमंडल में नित्य सम्बन्ध अस्थिर है अर्थात् अनित्य सँग मात्र है तदपि रतिमयता प्राथमिक प्रकट है , जबकि रति हेतू सँग नित्य सँगी होना ही चाहिये और ऐसी दशा में केवल नित्य सहचर परस्पर प्रेम स्वरुपों में ही रति सहज सरस् वरण्या है । मुझे कोई पुष्प माला पहना भी दे तो सम्भवतः उसे उतारकर अपनी श्रृंगार हीन सहजता में लौटने के लिये यह स्वभाविक दास स्थिति आन्दोलित हो उठे । अर्थात् श्रृंगार का आदर कहाँ है , वहीं जहाँ वह नित्य सँग और नित्य नवीनताओं...

जो आरति है जगत में,सो आरति हम नाहिं , तृषित

*श्रीहरिदास श्रीहरिदास* *जो आरति है जगत में,सो आरति हम नाहिं।* *गौर श्याम आरति हिये,सो आरति मन माहिं।।* नित्य बिहार रस में दासी -  सहचरीगण जो सेवा विलास निवेदन करने को सहज आन्दोलित है , वह कोई दिव्य ही सेवाएं है री । वह सामान्य सेवा श्रृंगार नहीं है , वहाँ तो महाभाव की वर्षाएँ आभरित हो हो कर श्रीपियप्यारी को हर्षाये रही है । रीझे भीजै श्रीललित श्यामाश्याम के प्रीति उत्सवों का सरस् मधुर उत्सव जहां-जहां झूम-झूम कर उन्मादित हो-हो कर और सेवा और सुख देने का महोत्सव खोज खोज बाँवरा हो चुका है , वह सरस् श्रृंगारिणीयाँ सहज सरस् सेविकाएँ है और कृपा है रस रीति के गीत की कि वह कह ही देती है री , कि वें हम है ...हाँ हम है , वह आरती । कैसा आर्त ...लोक भाँति त्रिविध (आध्यात्मिक-आधिदैविक-अधिभौतिक) आर्त नहीं है यहाँ । यहाँ आर्त है ...और सघन ... और सरस ...और मधुर प्रीति महोत्सव विलास उनका परस्पर प्रकट हो , और विलास सजे और श्रृंगार हो और और सेवा हो । यहाँ आर्त है कि न हम सेवा देती थके , ना ही आप प्राणिनीप्राण हमारे सेवा लेते हटे । बस यह आरतियाँ प्रीति-रैन बटौर बटौर झूम रही है , यह वह आरतियाँ नहीं जो ...

स्वार्थ प्रकरण , तृषित

*स्वार्थ प्रकरण* 1  स्वार्थ कौ रच्यौ सबहिं स्वांग जी ढेला भलि ना पहिचानै चित्त विषयी इष्ट स्वार्थ माने जी संचे खर्चे सबहिं व्यापार कौ मूल भोग स्वार्थ जाने जी धरम करम सेवा साधना छाडहिं जीव स्वार्थ स्वांगे जी रस रीति भीजै पद सेवन कौ साँचो स्वार्थ तृषित पावै जी 2 हित परहित कछु ना जानै , निज स्वार्थ रँग-रचना जीवन मानै  पुहुप झाडै विषय कीच डूबै भोग भजै स्वार्थ झाड फँसै जीवन मानै जागै स्वार्थ , सोवै स्वार्थ तबहिं साँचो स्वार्थ भजन ना जीवन मानै चलै सबहिं कौ कुचल संहारै आसन-मुकुट सब स्वार्थ जीवन मानै मूढ़ ढोल अल्प स्वार्थ विज्ञानी स्वार्थ हेत निज चेतन बेचहिं जीवन मानै तृषित अबहिं लोक भाव-रस-प्रीति का जानै , जोईं देहरी सजावै स्वार्थ देव निज मानै 3 सबहिं बिगाड़ी स्वार्थ सँग  रोग लग्यौ जोईं स्वार्थ कौ वैईं ना निरखै प्रेम देहरी कौ रँग जीवन प्यासो भटकहिं फिरै जोईं न पीवै प्रेम सुधा कौ चँग प्रेम को विलोम जैई कपूत स्वार्थ तजि भलि लिपटै अनिल अँग सबहिं रोग छूटै , जै दाग न छिटकै आपहिं बुझावै प्राण दीपक एसौ कपटी सँग 4 प्रेम वल्ली सबहिं खोजै , मिलै ना प्रेम की एकहूँ पात जीवन साँचो जीवै प्रेमी ...

सम्पूर्ण रस रीति , तृषित

कोई भी रस रीति ऐसी नहीं जो निभृत रस न हो । सभी रस मार्ग सहज निभृत रस मार्गी है । कोई भी रस रीति मध्य में नहीं अटकती । बस उनकी विधि - सेवा - भावना विविधताओं विचित्रताओं से सजी है । गाँव मे भी ब्याह होता है और सम्पन्न धनी भी भव्य स्वाँग सँग विवाह रचता है , कुछ मूल मूल संस्कार समान होते है और कुछ भाव-साधन अनुरूप भिन्नता होती है ।  मीठा लड्डू भी है और हलुवा भी है और भी कितने ही पकवान है । सो भोग रस निवेदन की विधि रस रीति कथित है और सभी रस रीतियां सम्पूर्ण भोग सेवा निवेदन करती है । भावात्मक वैचित्री वैसे ही आवश्यक है जैसे भोग थाल में स्निग्ध घृत , क्षार रूप नमक या मधु रूप पकवान आदि सँग है । वैचित्री नवीनता की सहज सेवा रखती है । रस मार्ग की पड़ताल की अपेक्षा अपने सहज सेवात्मक स्वभाव को अनुभव करने की चेष्टा हो और इसके लिए ही सत्संग आदि सहायक है । यहाँ सहज शरणागत सभी साधनों का अपवाद है , मेरे इस जीवन के किसी क्षण से या तनिक से लेकर जीवन भर के सँग से भी यह सिद्ध नहीं हो सकता था कि क्या अतिव विपुल हुलास विलास सेवाओं से भरे ललित रँगमहल की ब्यार स्पर्श मात्र की समता भीतर है । नीरसता इतनी प्रकट ...

सुभगिनी शरद , तृषित

*सुभगिनी शरद* शरद रस चन्द्रछटाओं की तरलता-शीतलता का सुरभित-लास्यता में श्रृंगार वर्द्धन है । यह शरद कुछ अनुराग सँग में प्रभा-छटा बिखेरती है तो किन्हीं में शीतलता का प्रवर्द्धन प्रकट करती है तो किन्हीं अनुरागों में सुरभित लास्यता में झूम-लहरा रही होती है । श्रृंगार रस में जिस भी रागिनी के सँग श्रीदम्पति को नवीन लास्य झँकृत करें वह नृत्यवती रास रस की सेविका है । अगर होली के भावगीत में वह रँग खेल सँग नृत्यमय भी है तो रास अभी गया नहीं है । अपितु कोई नित्य सेवा रस कभी जाता नहीं है बस उसका स्वरूप गम्भीर और तरल होता जाता है । यही लास्य डोल-हिंडोल में भी सेवित जिसमें सुरँगित रसिली जोरि को लिए झूमता हिंडोला ही नृत्यमय हो लास्यता की कोपलें नयनों से नयनों में रँग रहा होता है तो आलस भरित पौढाई में भी किन्हीं शेष-विशेष अलंकारों के नृत्य गीत केलिमयी वल्लित सुजोरी को पुनः - पुनः तरँगित सेवाओ में भीगोकर लास्यता की नित्यता को  विनय करते है कि कुछ काल तो थिर जाओ परन्तु जहाँ विश्राम सेवा ही परस्पर में प्रकट होती हो तो अपने अपने विश्राम हेतु अपनी अपनी प्रेमास्पद रूपी सेज में प्रवेश के आन्दोलन लास्य रस...

श्रृंगार गूँथन , तृषित

*श्रृंगार - गूँथन* प्रेम का अभिव्यक्त स्वभाव है , श्रृंगार । प्रेमास्पद का और श्रृंगार । परन्तु वह श्रृंगार जो उन्हें सहज रुचता हो , वह श्रृंगार जो वह तलाश रहें हो , वह श्रृंगार जो उनकी प्रीति का पोषण करता हो । प्रीति-प्रियतम या प्रेमासक्त दम्पति श्रीनागरी-नागर सँग में प्रेम  निवेदन में भीगे है तो इस सँग में इस मधुर दम्पति के हाव-भाव और समस्त निवेदन मात्र ही नहीं निवेदिता-निवेदिका यह सहचरियाँ स्वयं ही है श्रृंगार वपु । प्रीति की बहती धाराओं-झरनों में कभी विराम आता ही नहीं परन्तु सुकोमल प्रेम को जिस रीति प्रीति से आरोगन या रँगन-रञ्जन निवेदन होता है वह रँगाई है श्रृंगार । ज्यों नन्हें शिशु को ऋतुवत् वसन-भोजन सुख निवेदन होते है , वह कहें न कहें परन्तु शीतकाल बढ़ते ही ऊष्ण वसन निवेदन होने लगते है त्यों प्रेम जो कि अपने मूल विश्राम प्राण श्रीयुगल में प्रफुल्लित होकर उमङ्गित होता ही जा रहा है , उसी प्रेम को और उसमें निहित मधुर सुख को सम्भाल कर रूचि सहित ऋतुवत् रससेवा निवेदन होना श्रृंगार है । लोक में स्वार्थ का आकार दिन-प्रतिदिन इतना बढ़ गया है कि प्रेम का स्वाद ही अनुभव शून्य है परन्तु जि...

72 मेलराग मालिका (थाट)

७२ मेळरागमालिका ताळम: आदि पल्लवि - श्रीरागम प्रणतार्तिहरप्रभो पुरारे प्रणवरूप संपदे पदे । प्रणमामि श्री प्रकृतिप्रेरक प्रमथगणपते पदे पदे ॥ जति तां तां तकणक धीं धीं धिमितरि किटतक तरिकुडु तधीं धींकु तकधिमि तकतरि किटतक झम नादिरु दिरुधों दिरुदिरु दित्तिल्लाना दिरिना ताना दोंतिरि तकणक तकजणु तकधिमि ध्रुक्डतत तळाङ्गुतों तकतिक तधिङ्गिणतोम अनुपल्लवि - चरणम कनकाङ्ग्या रमया पूजित सनकादिप्रिय कृपालय ॥ १ ॥ रत्नाङ्ग्या धर्मसंवर्धन्या रमण मां परिपालय ॥ २ ॥ गानमूर्तिरिति धनशास्त्रमानमूर्धन्यैर्गदितोऽसि ॥ ३ ॥ श्रीवनस्पतिदलसमर्चनेन पावनभक्तैर्विदितोऽसि ॥ ४ ॥ मानवतीभिः स्मृतिभिरुक्तकर्मकृन मानवपापं वारयसि ॥ ५ ॥ तानरूपिणं त्वां भजन्ति ये तारमुपदिशंस्तारयसि ॥ ६ ॥ देवसेनापतिजनक नीलग्रीव सेवकजनपोषण ॥ ७ ॥ हनुमतो डिण्डिमभवं स्तुवतः सुतनुमतोऽददाभूतिभूषण ॥ ८ ॥ भानुकोटिसंकाश महेश धेनुकासुरमारकवाहन ॥ ९ ॥ आनन्दनाटकप्रियामरवर श्रीनन्दनाटवीहव्यवाहन ॥ १० ॥ कोकिलप्रियाम्रकिसलयाङ्ग गोकुलपालनपटुभयभञ्जन ॥ ११ ॥ बहुरूपावतीह भवान मां मुहुर्मुहुरूर्जितभक्तजनरञ्जन ॥ १२ ॥ धीरभद्राख्यगायकप्रिय वीरभद्रादिपालितशरण ॥ १३ ॥ देवकुलाभर...

अदृश्य कौलाहल , तृषित

* अदृश्य कौलाहल * किसी भी रस लोलुप्त सहज पथिक को हमारे भावसेवा रूपी वाणीसेवा निवेदन प्रारम्भ में आश्चर्यचकित कर सकते है । फिर जब उनकी साम्य स्थितियाँ बन जाएगी , तो धीरे-धीरे वें स्वयं सुधारक होकर मेरे हेतु मार्ग प्रेरक भी बन गए है । यहाँ अभी भी छींटे भर की लेन देन बनी है , (अगर शंख भी श्रीहरि सेवा में है तो वह रस से रिक्त नहीं है , कुछ आर्त छींटे से वह स्वयं की सहज नित्य सँग माधुरी का निमज्जन प्रकट कर भी नहीं कर पाता हो और रिक्त होने से पूर्व ही रसाभरित हो उठता हो त्यों यह विचित्र सेवा पथ... ) कृपा वर्षा अतिव गहन और सघन उत्सवों में आच्छादित है । ग्रीष्म में ताप , सर्दी में शीतलता और वर्षा काल मे रस स्पर्श की अनुभूति साधनावत हो तब भी प्रीति के सहज अनुभव अतिव सुदूर है क्योंकि तपस्वी और प्रेमी में जीवन के स्वभाविक स्वरूप का भेद हो सकता है , सिद्ध तपस्वी स्वयं की अद्भुत दिव्यता को पा चुका होगा और सहज प्रेमी की सिद्धता उसके प्रेमास्पद के सुख में सहज प्रकट अनुभवित है , प्रेमी के जीवन का दर्शन उसके प्रेमास्पद के रस श्रृंगार से झलक सकता है । प्रेम की यात्रा के समस्त साधन या तप उत्सवित उन्माद ...

गलित और सँग

*स्वभाव के पथिक को साधन - भजन नकल का नहीं , रसिक कृपा का पान करना है ।* स्वयं को मिली मणि और कृपा से सुलभ कंकर में भी कंकर की ही महिमा है  समान भजन रस होने पर भी रस वैचित्री जो बनेगी वह ही निज सेवा है या स्वभाव है । सो नकल का अर्थ नहीं बनेगा । साधारण प्राकृत स्थिति में पथिक की अपनी मनोभिलाषित क्रिया वैसे ही अहंकार आदि दोष का सृजन कर सकती है जैसे धातु को जंग लगा हो ।  परन्तु रसिक सँग या प्रदत प्रसाद से वह रसार्थ गलित हो सकता है और स्व या लोक कल्पित आकृति के गलित होने पर ही नवीन पात्रता का सृजन सम्भव है । ज्यों एक ही अग्नि के सँग से स्वर्ण - रजत या लौह गलकर भिन्न-भिन्न ही स्वभाव ग्रहण करेंगे त्यों कृपा वर्षा से हुई गलित स्थिति से अपने अपने स्वभाव के पथ सहज खुल सकते है । स्वयं द्वारा कदापि स्वयं के गलन के साधन नहीं बन सकते जबकि सत्य का सँग (रसिक सँग) सहज ही रस संगम हेतु द्रवित स्थिति से भर देगा ।  चिंतन करिये कि कब कब हम हिम आकृति वत स्वयं को गलित - द्रवित पाने को आकुलित हुए है । तरल हुए बिना तरल (रस) से संगम कैसे होगा ? सहज रस का स्वरूप - स्वभाव पान होने पर सहज ही रसमयता तद...

श्रीगोरेलाल जू गद्दी परम्परा

पंचम आचार्य श्रीस्वामी नरहरिदेव जु महाराज के सेव्य ठाकुर श्रीगोरिलाल जु है  इनकी शिष्य परम्परा में  🌹श्रीस्वामी रसिकदेव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी गोविंददेव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी मथुरादास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी प्रेमदास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी जयदेवदास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी श्यामचरण दास देव जु महाराज  🌹श्रीस्वामी हरिनामदास देव जु महाराज  🌹श्रीस्वामी गोपिवल्लभ दास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी बलरामदास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी गुलाबदास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी हरिकृष्णदास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी दामोदरदास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी बालकदास देव जु महाराज 🌹एवम वर्तमान बिराजमान पूज्य सद्गुरुदेव जु  महाराज महान्त श्रीस्वामी किशोरदास देव जु महाराज

श्रीटटिया स्थान की गद्दी परम्परा

🌹अखिल माधुयैक: मूर्ति अशेष रसिक चक्रचूड़ामणि, रसिक कमल-कुल दिवाकर महामधुररससार -नित्य बिहार प्रकाशक ,अनन्य नृपति श्रीस्वामी हरिदास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी विट्ठलविपुल देव जु महाराज  🌹अनन्य मुकुटमणि गुरुदेव श्रीस्वामी बिहारिणी देव जु महाराज  🌹श्रीसरसदेव जु महाराज  🌹श्रीस्वामी नरहरिदेव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी रसिकदेव जु महाराज  🌹श्रीस्वामी पिताम्बरदेव जु महाराज  🌹श्रीस्वामी ललितकिसोरी देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी ललितमोहिनी देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी चतुरदास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी ठाकुरदास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी राधाशरणदास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी सखीशरणदास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी राधाप्रसाद देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी श्रीमहंत श्रीभगवान दास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी श्रीमहंत श्रीरणछोड़दास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी श्रीमहंत श्रीराधारमणदास जु महाराज 🌹सदा बिराजमान श्रीस्वामी श्रीमहंत श्रीराधाचरणदास जु महाराज  🌹सदा बिराजमान श्रीस्वामी श्रीमहंत श्रीनवलदास जु महाराज 🌹वर्तमान बिराजमान श्रीस्वामी श्रीमहंत श्रीराधाबिहारीदास जु महारा...

अधिक मास अति नीको आयो।

अधिक मास अति नीको आयो। जो जो तिथी उत्सव की आवे करो मनोरथ अति मन भायो। आवै शुदी दौज की जबही प्रिया प्रियतम कू रथ बैठावो। शुक्ल पक्ष की तीजन पै सखी युगल लाल झूलन पधरावो। आठम शुदी बदी जब आवै ललि लाल को जन्म मनावो। नवमी तिथि मास पुरुषोत्तम होरी उत्सव खूब मनावो। दशमी तिथि कूँ विजय यात्रा ललि लालन गज पै पधरावो। अधिक मास की ग्यारस को सखी तुमुल ध्वनि हरिनाम करावो। या मास की पूनो तिथि पै श्री गौरांग बधाई गावो। पूनो तिथि पै ही महारास को करि मनोरथ मोद बढ़ावो। मावस अधिक मास की जब हो दीप दान करि युगल रिझावो। लीला विविध निभृत निकुंज की युगल लाल हित खूब रचावो। मास पुरुषोत्तम इक इक दिन मे करि उत्सव मन मोद बढ़ावो। अधिक मास में अधिक साधना करी करी माधौ परम् फल पावो।

सहज लालसा

*सहज लालसा* लालसा ही रस का श्रृंगार है । रसमयता या सरस रस स्थितियों का अभाव अनुभव हो सकता है परन्तु लालसा का कतई अभाव दिया नहीं गया है तदपि लालसा का अभाव है तो वह अपनी ही रोग स्थिति है । सहज लालसा में ही सहज त्रिविध ताप निवृत्ति भी है । परन्तु सहज और वास्तविक लालसा होने पर लालसा वर्द्धन ही साधना हो जीवनस्थ सिद्ध बनी रहती है । शीतल रस का दर्शन अगर चन्द्रमय वपु में दर्शित है तो उस रस का गहनतम अनुभव भास्करित स्थिति में सहज विकसित हो सकता है । वास्तविक लोलुप्त (पिपासु) को रस पीने की नहीं , रस सेवा देने की लालसा लगी रहती है जबकि स्वयं में रस का ही सर्वथा अभाव बना रहता है तदपि वह स्थिति ही समग्र रस का व्यवहार सेवन कर सकती है , परन्तु वहां वह स्थिति वास्तविक सेविका होने से निज सेवन को सेवा देकर ही अनुभव रखती है । सेवा सिद्धता भी लालसा का अंत नहीं है अपितु सेवा के समग्र विलास का सूक्ष्मतम चिंतन पान किया जावें तो सर्वदा सहज सेवक रहने की लालसा उफन पड़ेगी । सहज नित्य सेवार्थ सेवक लालसा दुर्लभतम है क्योंकि वास्तविक सेवक स्थितियाँ ही रसनिधि की संरक्षक या अभिभावक वत अनुभवित हो सकती है और सेवक में स्व...

स्थिर सुख की दैन पै थिर न सकी मैन

*स्थिर सुख की दैन पै थिर न सकी मैन* सघन युगल निकुँज रस की गहनता चाहिये तो अपनी गहरी स्थिरता स्वयं में अपेक्षित होनी ही होगी ।  लालसा हो थिर-स्थिर (मूर्त) हो रसमय सरस विलास सेवाओं की सेवामयता की ।  सरसता स्थिरता सँग ही फलित होती है सो सेविकाओं में स्थिरता और सेव्य श्रीयुगल में कोमल श्रृंगार विलासों से भरी गहन सरसताएं नित्य वर्द्धन हो ।  अधिकतम आज दर्शक समूह वत ही निकुँज लालसा है । वास्तविक सेवा में हृदय और प्राण मात्र से सचलता भी मिलित श्यामाश्याम के उत्स को अनुभव कर प्रकट होती है । और श्रीयुगल के शीतल मिलन महोत्सवों में वह मिलित शीतलता जब ही मिल पाती है जब उस मिलन रूपी शीतलता की सेवा होकर अबाध प्रीति के और सघन गहन मधुर होने की लालसा में बलैया भी देते न बने । विलसित युगल सँग हेतु मैनवत (मोम की पुतली) सखी चाहिये । मक्खी से लेकर सिंहनी तक के सम्पूर्ण वनचरों का विलास स्थिर या निजतम सँग ही प्रकट हो पाता है । सहजता भरी ललित क्रीड़ामयी प्रीति अति कोमल और विभोरित उत्स है जो कि नित्य सँकोच या लज्जा से आच्छादित रहता है । प्रकृति यौं न चाहियै चाहियै ज्यौं मैन ।  अपनी ओर से बनी स...

नवनीत वर्षण , तृषित

*नवनीत वर्षण* नित्य रस वाणियों में वर्णित उत्सव - रस - राग का नवीन ऋतुकाल और नवीन रागात्मक लीला झंकृत अनुसरण तब बनेगा जब यह स्थिर अनुभव हो कि यह अति मधुर रस मेरा निज नहीं है ।  अर्थात् रोगी को अपनी स्थिति पता हो तो औषधी द्वारा हुए परिवर्तन सहज अनुभवित होगें  कि अपनी स्थिति क्या थी और औषधी ने क्या असर किया । सो नवीन नवीन लीलात्मक सहज सुखों हेतु आचार्य परिपाटियों में वर्णित निकुँज उत्सवित वाणियों-पदों में भिन्न राग ताल की रूपरेखा सहज प्रकट होती है । जिससे वर्णित उत्सव की भाव झाँकी में प्रवेश की सहजता रहती है जैसे कि प्रभात के पदों में प्रभात की राग-रागिनी और संध्या साँझ या रात्रि की झँकृतियों में वैसी ही राग । अगर प्रभात में संध्या भ्रान्ति हुई है तो वहाँ भी वैसी ही राग है जिसमें सन्धि काल मधुर प्रकट है । प्रत्येक ऋतु के अनुसार प्रयुक्त राग के लीला में वर्णित श्रृंगार भी नवीन है जो कि आचार्य रसिकों ने निवेदन भी किये है । जैसा कि शीतकाल मे आम्रफल सहज नहीं और ग्रीष्म काल के भोग वर्णन में उष्णोदक या उष्ण भोग्य रस जैसे कि सूखे मेवे आदि वर्णित नहीं है । वैसे ही उस राग की झांकी ही नवी...

नित्त नैमित्तिक वर्नन (नित्त केलि पद्धति)

नित्त नैमित्तिक वर्नन (नित्त केलि पद्धति) जदपि सरद बसंत रितु,रहत कुंज सब काल। पै रसिकनि क्रम रीति सुभ,यहि विधि कही रसाल।। रवि उदोत तें अस्त लौं,रितु बसंत कौ राज। रजनीमुख तें प्रात लौं,सरद राज सुख साज।। द्वै रितु वर्तत मुख्य ए,अरु सब इनके अंग। ग्रीषम अरु पावस उभै,रितु बसंत के संग।। त्यौंही सिसिर हेमन्त द्वै,सरद भूप के साथ। अपनी अपनी टहल करि,षट रितु होत सनाथ।। इक इक रितु दस दस घरी,रहत नित्त ही आइ। यहि प्रकार षट रितुन कौ,क्रम करि धरहु बनाइ।। षट रितु ह्वै यहि रीति सौं,मिलत सुरति में आइ। प्रथमहिं मधु रितु वरनिये,फाग खेल सुखदाइ।। कुमकुम केसर रंग सौं,भीजे वसन चुचात। सुरति खेद सुकुमार तनु,स्वेदनि छाये गात।। सुरंग गुलाल रसाल सौं,लाल होत तिय लाल। उर अनुरागनि सौं अरुन,भये प्रान पति बाल।। उष्न प्रगटहीं सुरति में,पावस रितु यहि रीति। घन गरजनि किंकिनि बजत,वरषा स्वेद प्रतीति।। झूलनि वर हिंडोर रति,डाँडिन गहि भुज मूल। मनि पटुली जुग जंघ जिमि,कुच झूमक समतूल।। लचकत कटि मचकत नवल,झूलत सुरति हिंडोर। औरै रस ललचात नहिं,नागरि नवल किसोर।। रास रसिक रति सरद रितु,सुख विलसत यहि भाइ। श्रीमुख मंडल विमल पर,भृकुटि कुटिल ...

सहज , तृषित

सहज  रस कुँज हो या नवधा आश्रय यह *सहज* सर्व उत्कृष्ट स्थिति है  ।  मै सहज हो सकता हूँ क्या ??  नहीँ *मैं* कभी सहज नहीं हो सकता ।  सहजता की वास्तविकता यह है कि सहजता स्वयं में दर्शनीय हो नहीं सकती । स्वयं में सहजता तलाशना ही असहजता है ।  सहजता है ... आप सहज हो , वह सहज है , यह सहज है , सब सहज है । मैं असहज हूँ । यहीं  सहजता का दर्शन होना है ।  सहज को सहजता ही दर्शन देती है । इसलिये जब तक तुम मुझे सहज न लगने लगो , मुझमें सहजता है यह भृम होगा ।  और वक्ता , लेखक कभी सहज नहीं हो सकता जब तक कि उनका अन्तस् स्वयं के चिंतन की एक बिन्दु भी छुवे हो ।  पाठक - श्रोता अवश्य सहज पथ पर है ... सेवक - अनुचर - परमार्थी अवश्य सहजता की ओर है , अतः मैं कभी सहज हुआ तो तुम सहज दिखोगे और तुम दिखने लगे सहज तो स्वप्न में भी मेरे प्राण तुम्हारे अन्तः रस भावार्थ तृषित रहेंगे ।  सहजता दर्पण है जो अपना स्वरूप नहीं जानता , सन्मुख को ही स्व में पा सकें । सहज नेत्र , सहजता ही देखते है । सहज कर्ण सहजता ही सुनते है । सहज वाणी सदा सहज ही रहती है । सहजता मुझमें हो नहीं ...

श्रीजी कौ उत्सव 2020 , तृषित

उत्सव आई रह्यौ ह्वे उत्सवित ही रहियौ । जहाँ खड़ी ह्वे , वहीं झूमती रहियौ ।  वृन्दावनिय रस रीति का सहज उत्सव तो राधा अष्टमी है । निकुँज  रीति के उपासक श्रीजी के रस रूप प्रेम प्राकट्य सुख उत्सव में सहज ही भीगकर झूमते हुए उत्सवित हो उठते रहे है । इतने धूमधाम से बहुत ही बहुत कुँज निकुँज में झूम झूम कर यह उत्सव ऐसा मनाया जाता रहा है कि सम्भवतः कोई निराली सहज स्थितियाँ ही कुछ कुँज की उत्सव लहरों में भीग कर और-और रस रंगों में भीगने को दौड़ पड़ती हो अन्य कुँजन में । जैसे श्रीविपिन ही प्रफुल्ल होकर उत्सवित हो गए हो और उनके सहज सरस प्रेम संक्रमण में आये जीव - पदार्थ सब ही उत्सवित होकर यहाँ वहाँ रस रंगों को भर भर कर और माधुरी बलिहार में बौराये फिर रहे हो । श्रीजी के इन सरस उत्सवों से न कोई कभी थका होगा , न ही पूर्ण उत्सवित उन्माद निहारा ही भर होगा । कितना अमृत बरसता है यह तो बिन्दु बिन्दु सहज प्रसाद में पीकर ही कोई अनुभव कर सकता है । भला कौन है जिसने जल की वर्षा के बिंदुओं का भी संचय पूरा पूरा कर ही लिया हो , तब तो मधु धाराओं के रसामृत वर्षण कैसे समेटते बन सके । आज सम्पूर्ण श्रीविपिन उत्सवि...

सहज मातृ रसरीति , तृषित

सहज मातृ रसरीति सहज मातृ रीति की प्राप्ति रही है । अपने जाने और माने हुए रस आहारों के अनुभव को छोड़ने पर ही सहज रस आहार मिलता है । अबोध शिशु स्थिति को निज रस रीति का आहार सहज मिल रहा होता है । अर्थात् भोग-आहार के नए-नए बाजारों ने प्रसाद रूपी रस कृपा रीति से दूर किया है । प्रसाद से रस वही मिलता है जहाँ अपने रस-आहार का कतई पृथक अनुभव न हो । सहज रस तो सहज ही प्रकट है , बस असहजता का रसाभास छुटे । माँ और शिशु की एक जाति होती है जैसे गौ का शिशु गौ वत्स । वानरी का शिशु वानर  । हिरणी का शिशु हिरण ।  गुलाब की लता पर ही गुलाब के पुष्प प्रकट होते है और अन्य पुष्पों पर गुलाब की लता का अधिकार नहीं हो पाता , अधिकार का अर्थ निज रस का सहज समावेश भरना ही है , अन्य जाति के खग को अपनी बोली में बोलना नहीं सिखाया जा सकता और अपनी साम्य रस रीति में वह निज रस सहज ही अवतरित होता है अगर आज की परम्पराओं में  शिशुओं में मातृ रस रीति की सहज एकता नहीं है तो जीवन का सौंदर्य प्रकट नहीं हो पाता ।  शिशु सहज ही अनन्य सँग करता है , माँ जिस दिशा में जावे वही या तो पीछे पीछे या मां की गोद मे ।  हिरणी...

सहज भजन कृपा , तृषित

*सहज भजन कृपा* जिन्हें पियप्यारी से प्रेम है वें भजन किसी प्राप्ति के लिये नहीं करते है । अपितु इसलिये करते है कि अपने प्रेमास्पद श्रीयुगल का गहन सँग और स्मरण इतना मीठा रस है कि उससे छूट कर वैसी स्थिति रहती है जैसे मछली की जल से बाहर । मीठे रसिले नाम और नवीन नवीन झांकियों कौतुकों से भरे पदों को नित्य इसलिये गाया या स्मरण किया जाता है कि बड़ा सुख बनता है , जब प्रति नव झाँकी या नव लीला या कीर्तनों में नवीन-नवीन लीला स्फुर्तियाँ पुलकित होती है । ज्यों शिशु को एक बार देख कर ही माँ के नयन संतुष्ट नहीं होते , वह निहारन और सँग को जीवन मानती है त्यों युगल रस के रसिकों को नित्य नवीन सुख मिलते है इन पद - कीर्तन या भजन सँग । कुछ जन कहते है कि एक बार सम्बन्ध हो गया तो भजन की क्या जरूरत है , जबकि भजन ही नहीं बन रहा है तो वें स्मृति शून्य साँसे ही अनन्त मृत्यु की पीड़ा प्रेमी को अनुभव होती है और प्रेमी रसिक जब तक सर्व स्थितियों में एक नाम या स्वरूप सँग का अभ्यास न कर ले तब तक वह प्रेमी ही कहाँ है । भजन का नहीं , प्रेमी भजन हीनता से छूटने के अभ्यास करते है । फिर गहन पीड़ा के रोग स्थितियों में भी यह भौति...

सहज कौतुक , तृषित

*सहज कौतुक* किसी रस के कौतुक का अनुभव केवल कृपा साध्य है । जिस कोयल ने आम्र रस नहीं चखा हो वह उसकी मधुता की स्पष्ट भावना केवल आम्र सुरभताओं में भरी पूर्व कोक रागिनियों को सुनकर उन्हें दोहरा दोहरा कर ही रसानुभव पा सकती है ...आचार्य प्रदत भजन - वाणी कृपा की महिमाओं को केवल किन्चित समेटा भर जा सकता है , उनकी सुरभता द्वारा ही प्रदत स्थितियाँ कैसे उनकी सहज महिमाओं को पुकारें । बस हृदय चाह उठे कि हृदय पर जो लीला कौतुक झलकें ...वह वही झलकें जो सहज ही नित्य क्रीडित होती आ रही हो , उसमें निमिष रति मात्र कल्पनाओं की मृतिका न छुटे ।  प्रत्येक खग जाति की अपनी कलित ललित नवेली भावनाएँ नृत्यमय है । प्रत्येक पुष्प की अपनी सौंदर्य आकृतियां और सुरभता आदि नई माधुरियों में उच्छलित है । किसी भी खग जाति का वन बिहार भी कल्पना नहीं हो सकता क्योंकि उनका अपना अपना भाव मुद्रा विलास है  और ना ही पुष्पों की छबि से उनकी सुरभित पृथकता को कल्पनाओं में उतारा जा सकता है क्योंकि प्रत्येक कुसुम जाति की अपनी सुरभता है । त्यों अनन्त अनुरागों-रागों रस भावों-अनुभावों में श्रीप्रिया और उनकी सहचरियों का विलास ललित लील...

वर्षा विनय , तृषित

*वर्षा विनय*  निष्काम - सिद्ध - वैदिक - प्रेम सभी पथ के पथिक अपने आराध्य के सुख स्वरूपों या  उनके विलास सेवकों से वर्षा की माँग कर सकते है । और यह माँग होने पर पथ के निष्काम स्वरूप में कहीं खण्डन नहीं होगा । मेरा विनय है वर्षा माँगिये । पूर्व काल में वर्षा के लिए वैदिक अनुष्ठान प्रयोग होते रहे है । वर्षा अनिवार्य माँग होनी चाहिए और वर्षा के वर्षण में मानसिक दोष प्रकट करने वालों का सँग छोड़ दीजिये या उन्हें स्पष्ट करना चाहिये कि प्राणी मात्र और तृण मात्र की तृषा वर्षा से ही रस सिद्ध होगी । (बहुतायत प्राणी वर्षा के वर्षण होने पर मानसिक या कथित भाषण करते है कि अभी क्यों आई ...तब आती ) वर्षा का समुचित अभाव है । वर्षा की माँग से वही छूट सकता है जिसने जल की बिंदु भी सँग न की हो । सो प्रार्थना कीजिये वर्षा के निमित्त और जब वर्षा हो तब अधीर भाव से प्राणों से यही पुकार उठे और बरसो न ...और । मुझे फिर कोई अधीर न दिखे इतना बरसो न । वर्षा माँगिये , आपकी कोई साधना हो वह भँग ना होगी ।

ताप सँग , तृषित

ताप सँग में ही ताप का निदान है । ताप भरित स्थितियों के ताप निदान में प्रायः ताप ही भोगवत पाया जाता । अग्नि का अग्नि से संयोग होने पर अग्नि असहज नहीं होती परन्तु जल के शीतल छींटे से प्रदाहित स्थितियों का अनुभव बन ही जाता है । झुलसता जीव उष्णोदक पान कर बाह्य झुलसन की विस्मृति को उष्ण भोग से निदान करता है । शीतल पेय सँग ऐसी श्रमिक स्थितियाँ उष्ण भास्कर प्रभाओं के सँग पूर्व में ही पराजित युद्ध नहीं कर सकती । त्यों ही शीतकाल मे शीतल जल से स्नान ही शीतलता का आदरवत स्वीकार्य है और प्रायः ऐसा करने वाली स्थितियो को पता है कि शीत काल के शीतल जल स्नान से शीतलता को सहन करने का सामर्थ्य जितना मिलता है उतनी ही कँपकँपी कम रहती है । शरद लालायित स्थितियों को जलवायु के तापमान को सहज ग्रहण कर सँग करना चाहिये , अगर भीतर जीव स्थिति ही है क्योंकि शरणागत को शरण्य  स्वामी की सभी भेंट स्वीकार होनी ही चाहिए । विधान की प्रत्येक स्थितियाँ जैसे जलवायु भी साधक का सृजन करती है । अगर आप विरहित या दाहित या व्याकुलित है तो आपकी देह भी उष्णकाल में भी शीतल जल भी नहीं माँगेगी । प्रायः उष्ण जल पान से जठराग्नि के अग्नि ...

रस दे कर , रस लेना । तृषित

हमारे पास नित ही बहुत से संदेश आते है जिनमें यह रस *लेने* की लालसा होती ।  मुझे कब वह मिलेगा , यह मिलेगा आदि आदि ।  स्वयं को पुनः - पुनः इस रस रीति को दे *देने* की लालसा जिन्हें उठेगी वह बहुत कुछ ले सकेंगे ।  लालसा होनी चाहिये कि कब मैं निज भाव सेवाओं को निवेदन कर सकूँगी , या कब श्रीश्यामाश्याम के नित नवीन सुख की सेवा कर सकूँगी आदि ।  यह विचित्र पथ है , जो लेना चाहते है वह सभी ले नहीं पाते ।  और जो सर्वस्व देने को लालायित हो वह देकर भी दे नहीं पाते क्योंकि पत्र पुष्प सेवा लालसा से भी भाव- रूप - सुख - आनन्द मिल जाता है । अर्थात् आत्मियता से देने का केवल संकल्प प्रकट हो , यहाँ देने को कुछ अपना होता ही नहीं और उससे ही वास्तविक रस हेतु पात्र में रिक्तता बनी रहती ।  सेवा-प्रेम या सुख देने की चाह प्रकट होने भर से  अपना हृदय भीतर ही भीतर सुखों में भीगा मिलता है ।  तृषित । जितने भी सन्देश आते है , रस लेने के आते है परन्तु रस से पूर्व प्यास की लालसा हो और रस प्यास लेने की ललक कहीं लग भी जावें तो सुखों की सेवा देते हुए भी प्यास लगी ही रहती कि क्या और कैसे स...

सुख वर्षा , तृषित

*सुख वर्षा* ले लो न अपने सुख , मेरे हृदय से आन्दोलित रोम-रोम में बहते रस से अपना सुख पी ही लो न । साँस-साँस में हो ऐसी नई सुगन्ध इन फूलों सी कि मैं छूटना भी चाहूँ तो अर्क (इत्र) बनकर भिगोती रहूँ तुम्हें । देह को छूते जलवायु सब से तुम्हे ही सुख हो । श्रवणों में आती ध्वनियों से भी केवल तुम्हें ही सुख हो । आँखों मे भरे प्रत्येक दृश्य से भी तुम्हें रस मिल रहा हो । जिह्वा पर आया अर्द्ध अक्षर भी तुम्हें ही आह्लादित करता हो । मेरे चलने से भी आपके कुँज-कुँज बिहार की सिद्धि हो । मेरे हाथों में आई प्रत्येक सेवा वस्तु भी तुम्हारा श्रृंगार ही गूँथ रही हो । मेरे रोम रोम में केवल आपके ही सुखों की ललक हो । मेरे भोगों या भोजन से स्वाद - रस सब तुम्हे ही हो । मेरे विश्राम या शयन से आपका ही सेज सुख और गहन हो । प्राण प्राण मेरा फूल-फूल होकर आपके कोमल मधुर रसीले सुगन्धित सुखों को खोजने को बाँवरे हो उठे । आपको जिससे सुख नहीं वह वस्तु - व्यक्ति - स्थिति मेरे सँग आवें ही नहीं और जहाँ -  जहाँ आपका सुख ही सजता हो वहाँ वहाँ की रज सेवा मेरा जीवन हो जावें । मैं पागल हो जाऊं आपके सुख हेतु ही , आपके सुखों की प्य...

स्निग्धता , तृषित

*स्निग्धता* कोमलता से जिह्वा की रस भोग सेवा देने वाली आहार सेविका अलियाँ चिकनाई को गूँथ का कोर निवेदन करती है । अर्थात् रसोई सेविकाओं को पता होगा ही कि अधिक चिकनाई मिश्रण से धान्य चूर्ण (आटा-बेसन) कोमल होकर जिह्वा पर सुख हो सकता है । पकवानों में घृत-तेल का मोयन पूर्व में कर देने पर वह कोमल रहते है अर्थात् चिकनाई से स्निग्ध कोमलता सजाने की योजना रहती है । ज्यों दो चिकने अणु बिखरने पर फिसल जाते हो ...वह दो होने में संकोचित रहते हो ...त्यों चिकनाई (स्निग्धता) भीतरी रस की सेविका हो , उस रस को कोमल लेप कर फिसल ही सकती है ...ज्यों गहन शीतल गाढ़ नवनीत मधुर रसपय ...प्राणों का तरल कोमल्य । कोमलता की सेवाओं हेतु उस फूल की स्थिति चिकनी (स्निग्ध) धरा पर फिसल कर ढह रही हो । स्निग्ध मधु नहीं अलियाँ फूल से लाती है वह केवल मधुता लाती है , अगर मधु स्निग्ध भी हो तो मधुपान उपरान्त फूल कोमल नहीं रह जायेगा । फूल की मधुता को बटौरने का अन्य विकल्प नहीं हो सकता सो मधु अलियाँ मधु बटौरती है अपनी स्वामिनी हेतु । मधु स्निग्ध मधुपर्क आहार से नवीन सौंदर्य कोमल किशोर वयता की सेवा रहती है । स्निग्धता अर्थात् चिकनाई के...

कलोल कलँगिनी , संगिनी जू

*कलोल कलँगिनी* Do Not Share *सरस सिर पेंच कलंगी चंगी* *सोभा कौ सिरमौर चन्द्रिका मोर की।* *बरनी न जाइ कछू छबि नवल किशोर की।।* *सुभग माँग रंग रेख मनों अनुराग की।* *झलकत मौरी सीस सुरंग सुहाग की।...

अमनिया , तृषित

अमनिया कोमले मधुरे नवीनिमा में भीगे सुख रँग स्निग्ध-शीतल सौंदर्य-लावण्य वर्षित तरँगे पुलकनें-ठिठुरनें और शरदीय विभास-स्पंदन दिव्याद्भुत सघन सारिके सौंदर्यमालिका य...