पार्ट 2 क्या एक बार रसमय होकर पुनः कोई निरस हो सकता है ? तृषित

पार्ट 2
क्या एक बार रसमय होकर पुनः कोई निरस हो सकता है ?

कदापी नही हो सकता । जिसे पारस छू गया वह सोना हो गया । अब कोई विज्ञान ही उसे इस ज्ञान से निकाल ले जा सकता है । ज्ञान - मैं अब स्वर्णमय हो चुकी हूँ , वह मुझमें प्रकट है ।  विज्ञान - इसके लिये पारस छूकर पारस हुई वस्तु में कोई ऐसा भाव अणु हो जो यह चिंतन करें कि मैं स्वर्ण नहीँ हूँ , मैं कैसे स्वर्ण हो सकता हूँ । तो इस विस्मृति के प्रभाव से वह सारी वस्तु उस नकरात्मक भाव को पुष्ट कर पुनः वही हो सकती है । विस्मृति का परिणाम जीव है और स्मृति का परिणाम शिव ।
जीव नित्य भगवत नाम रूपी पारसमणि को मुख से स्पर्श कर भी कहें मैं उसका नहीँ हुआ । कब होऊँगा ? यह उस पारसमणि का अपमान ही तो हुआ । नाम से हम जीवत्व से शिवत्व की यात्रा करते है भगवतनाम का चिंतन शिवत्व का विषय है । अतः जीव जीवन रहते अधिक शिवत्व यानि भगवत नाम पुकार उसी नाम की वस्तु भर हो जाना जैसे लोहा स्पर्श से स्वर्ण होता । अब हम नाम पुकार भी जीवत्व की सिद्धि करें , जीव को सत्य माने तो यह शिव स्वरूप के प्रति अपराध है , नाम से नामी के प्राकट्य की अवहेलना क्या अपराधी नहीँ , नाम पुकारा जावें जिसका नाम लिया वह प्रकट हुआ , खड़ा है , तुम्हें दिखा नहीँ , पुकारते गये , पर दिखा नहीँ , तो यह किसकी कमी है , यह कमी ही व्याकुलता है , व्याकुलता कि तुम हो मैं देख नहीँ पाता । दर्शन में दोष है , दृश्य तो है ही वहीँ । दृष्टि नहीँ प्राप्त , वरन नाम और नामी में अणु मात्र भेद नहीँ अपितु नाम साकार तत्व का प्रथम स्पर्श बिंदु है । निराकार वस्तु को तो कुछ भी कह दो , साकार को तो नाम देना होगा , जैसे सब एक है पर रवि शनि नामक दो नाम में भेद है ... जीवन में रवि का चाहिये या शनि का आगमन । जिसे कर्म द्वारा पुकारा वह आ गया । अतः अब पुकारने पर वह आपके नेत्र होगा तो दृश्य होगा ... यानि तुमसे तुम को निकाल वही रह जावे । सर्वांग उतरते उतरते वह नजर आये वह नेत्र होगा और इसके लिये वह दृश्य भी होगा ईश्वर के श्री स्वरूप का दर्शन कर हम दृश्य भी उन्हें स्वीकार कर उन्हें निरखते है , अब यहाँ एक अहम रह गया जिसे प्रभु अहम नही बल्कि जीव की विस्मृति कहते है ... भूल खुद को भूलने की  स्वरूप विस्मृति । हम उनके खिलौने यह बात हम भूल गए । अब जब यह बात अहंकार से उतरे मैं तो हूँ ही नहीँ वही है , तो यहीँ पारस का प्रभाव है कि वह उतर गया पूरा पूरा । कुछ मैं टिका तो उसे पीड़ा होगी । छू गया तो छु गया ... भोतिक पारस तत्व को सत्य मान लिये हम तो नामरूपी दिव्य को क्यों नहीँ नाम से नामी में भेद नहीँ तत्क्षण वह खड़ा है अति निकट , अपितु आलिंगित , अपितु डूबा हुआ , अपितु हृदय में भाव रूप तैरता हुआ अपितु नेत्र से फुंटते हुए अंकुर से खिली सृष्टि सा । केला कहते ही उसका स्वरूप चित में आता है , राम कहते ही उसका स्वरूप स्मरण न हो तो क्या यह भी ईश्वर का दोष है । जीव अहम को पुष्ट करता है शिव नामी को पुष्ट करते है , जीव को शिव भाव आना अनिवार्य है , अर्थात कल्याण का भाव  यानि भक्ति प्रकट होना , शिव , हित , कल्याण , पर्याय ही तो भाव है ... स्वरूप लौट आवें कि जो छू गया वही रह गया , नहीँ हुआ तो भगवान के विलम्ब का नहीँ जीव की माया और अहम सिद्धि में स्वरूप विस्मृति का रोग है । सो जीव पारस से स्पर्शित हो पुनः पत्थर नहीँ हो सकता । रस रस से स्पर्श होता , रस में रस का प्रवेश होता है इसलिय नाम रस सत्संग प्राथमिक है रस प्रवेश हो भीतर रस में भीतर भी नीरसता न हो भक्ति रूप भाव मय रस प्रकट हो दोनों और का रस व्याकुल हो , रस से रस का शेष होता है , रस से रस का समावेश होता है । अतः जागृत तत्व फिर रस है सन्त है ,प्रकट रस । रस के स्पर्श से रस प्रकट होगा ही और रस ही दर्शन होगा । अब मान लीजिये मैं राम का वह बाण हूँ जो एक बार चला फिर उन्हें प्राप्त नही हुआ तो भी हूँ तो राम का ना और  सौभाग्य से राम किसी को नहीँ छोड़ते , प्रकट है राम नाम से राममयता को जीवंत कीजिये , मैं राम हूँ यह नहीँ , मैं राम की हूँ ... भक्ति । इससे वह दोनों और से भरता हुआ अन्ततः रस से शेष रस ही हो जायेंगे । तो नीरस कैसे हो सकता है , शक्कर का एक कण गिरा जल भी कहा जाएगा शक्कर डाली थी । नाम रूपी मधुरता भरते जाइये । अगले पड़ाव तक जिसके कारण स्पर्श , आलिंगन खो गया , उस सीढ़ी का नाम है ... नाम भजन , तृषित !! जयजय श्यामाश्याम ।

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